Monday, February 26, 2024

फ़िलहाल 7 - ध्यान सिंह

डोगरी लोक - कविता की परंपरा में 'दीनू भाई पंत' के उपरांत जो कवि सर्वाधिक ध्यान आकर्षित करते हैं, वे हैं अग्रज 'ध्यान सिंह' जी। वे लोक - मानस के चितेरे हैं। उनकी कविता जैसे लोक के लिए ही बनी है। वे डुग्गर ग्रामीण परिवेश को रचते हुए एक विस्तृत आलोक रचते हैं, जो अवार कवि 'रसूल हमजातोव' की याद दिलाता है। वे कला की कमोडिटी को तोड़ते हुए, बखूबी राजनैतिक - कंटेंट भी रचते हैं। जम्मू के दिनों में उनसे एकाधिक बार बैठकी हुई तथा उनकी ठसक व मौलिकता ने प्रभावित किया। एक उदाहरण ही पर्याप्त है कि उन्होंने लुप्त होती जा रही ग्रामीण - कला-'रुट - राहड़े' को सुरजीत किया व कई महिलाओं को इसके साथ जोड़ा। एकबार मैं 'रँजूर' साहिब के साथ किसी गाँव में इसे देखने गया तथा 'दैनिक कश्मीर टाईम्स' के अपने स्तंभ में इसकी चर्चा भी की।

विगत दिनों से साथी - कवि 'कमल जीत चौधरी' ने डोगरी के कुछ प्रमुख कवियों की कविताओं का हिन्दी - अनुवाद करते हुए, इन्हें विस्तृत पटल/मंचों पर रखने का बेहद महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। ऐसा सामूहिक रूप से सोचने - करने का पहले किसी ने नहीं ही सोचा। इसी अनुवाद - क्रम में उन्होंने 'ध्यान सिंह' जी की भी कविताएँ अनूदित की हैं, जो सदानीरा, हिन्दवी, इण्डिया टुडे, अनुनाद, पहलीबार जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। उन्हीं में से तीन यहाँ दर्ज़ कर रहा हूँ :



● स्पर्श 
 
वा का स्पर्श 
लौ का स्पर्श 
जल का स्पर्श
आवाज़ का स्पर्श 
नज़र का स्पर्श 
देह से आत्मा को 
होने - जीने का अहसास करवाता: 
इसे समझकर बरतना। 

यहाँ खालीपन को भरने की चाह रची गयी है। अंत तक आता कवि जो कहता है, इसे सीखना होगा ।
दूसरी कविता देखें, जो सामाजिक अप्रसांगिकता पर सीधे - सीधे अंगुल रखती है
:

● जेबें

मेरी जेबों में अक्सर हवा रहती है 
इन्हें टटोलूं तो 
हवा कम लगने लगती है 
शायद इनके कोनों में छुप जाती है 
मेरे हाथों को शर्मिंदा होकर 
खोटे पैसे की तरह वापस लौटना पड़ता है 
मेरा अभावग्रस्त प्यासा मन 
बहलाए नहीं बहलता 
मैं उस दर्ज़ी की निंदा करता हूँ 
जिसने यह जेबें बनाई हैं। 

सच के पक्ष में खड़ी इस कविता को धुंधलाया नहीं जा सकता। यह एक ही कविता, संघर्ष है, राजनीति भी। यहाँ वे वास्तविकताएँ हैं, जिन्हें षड्यंत्र से झुठलाया जा रहा है। यहाँ हासिल नहीं, सच पकड़ना है। चहुं ओर पसरे अभिशाप को लताड़ना है।
तीसरी कविता देखें :

लौ की आस 

क पक्षी बोले स्याह अँधेरे में 
लौ कब होगी 
बार-बार पूछे 
लौ कब होगी 
लौ होगी तो दाना मिलेगा 

एक पशु बोले स्याह अँधेरे में 
लौ कब होगी 
बार-बार पूछे 
लौ कब होगी 
लौ होगी तो घास मिलेगा 

एक पेड़ बोले स्याह अँधेरे में 
लौ कब होगी 
बार-बार पूछे 
लौ कब होगी 
लौ होगी तो साँस मिलेगी 

एक आदमी बोले स्याह अँधेरे में 
लौ कब होगी 
बार-बार पूछे 
लौ कब होगी 
लौ होगी तो रास्ता मिलेगा : 

यह ‘होने’ और ‘मिलने’ की बात है 
यह बात बड़ी निराली है 
अति ज़रूरी 
बड़ी प्यारी— 

यह होगी तो कुछ 'मिलेगा' 
कुछ मिलेगा तो यह 'होगी'। 

इस कविता का मूल ऐसा परिवेश है, जहाँ संस्कार तो हैं ही, माटी की गंध है, उम्मीद, लालसा है। जीवन जीने की तमन्ना है। हक से खड़ी प्रकृति है। भरोसा टटोलना है। अंधकार मथना है। इस कविता का भाव व शिल्प क्या नेरूदा की याद नहीं दिलाता?

लोक अपने अंतस में विशाल भाव लिए होता है। यहाँ परंपरा है तो समाज भी है, जीवन - मूल्य हैं, तो खांटी सच भी है। पड़ताल है, सोचने - समझने की जांच है और ऐसी ललक भी, जिससे धरती को बेहतर से बेहतर किया जा सकता है। विभिन्न विधाओं में इनकी लगभग 55 किताबें छप चुकी हैं। कह ही चुका हूँ, इनके लेखन में प्रकृति और लोक अपना संसार रचते हैं। वे आज भी गाँव में रहते हैं और सक्रिय हैं। संरक्षण - संस्कृति पर काफी काम किया है। इन्होंने ग्रामीण-खेलकूद आयोजन भी करवाएं हैं। 2009 में 'परछावें दी लौ' संग्रह पर इन्हें साहित्य अकादमी व 2014 में 'बाल - साहित्य पुरस्कार मिला है। इनके कार्यों में 'कल्हण' का डोगरी - अनुवाद अलग से रेखांकित किया जाता है। जिला शिक्षा अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त होकर, इधर इतिहास पर काम कर रहे हैं। अग्रज कवि को हार्दिक शुभकामनाएँ।


-मनोज शर्मा
7889474880

No comments:

Post a Comment