Wednesday, February 14, 2024

मृदुला सिंह

पूर्व प्रकाशन-  वागर्थ, हंस ,सांस्कृतिक पत्रिका लोकबिम्ब, जन संदेश, छपते छपते, छतीसगढ़ आस पास, मड़ई, पाठ, प्रेरणा, लोक सृजनकविता विहान,जनपथ, छत्तीसगढ़ मित्र, समकालीन जनमतअन्विति, मधुमती तथा रचनाकार आदि में लेखकविताएँ लघुकथा का प्रकाशन

आगामी प्रकाशन - हंस के फरवरी अंक मे कविता प्रकाशित होने की एवं साहित्य अकदमी राजस्थान की पत्रिका मधुमती मे कहानी के प्रकशन की सूचना

 
Ø कोरोना काल विशेष .' दर्द के काफिले '  कविता संकलन (सं कौशल किशोर) में कविताएँ प्रकाशित
Ø जिंदगी जिंदाबाद (सं. रीमा चड्डा दीवान)  में कहानी 'ताले 'का प्रकाशन
Ø मराठी, और अंग्रेजी भाषा मे कविताओ का अनुवाद और प्रकाशन


प्रकाशित
पुस्तक

1.सामाजिक संचेतना के विकास में हिंदी पत्रकारिता का योगदान ( संपादन)
2 मोहन राकेश के चरित्रों का मनोविज्ञान ( पुस्तक)
3.पोखर भर दुख (कविता संग्रह) 2021 में प्रकाशित
4. अंधकार के उस पार (मुक्तिबोध पर केंद्रित (संपादन)
5. तरी हरी ना ना (संपादन) (छत्तीसगढ़ की स्त्री कहानीकारों की कहानियों का संकलन )
 

Ø आकाशवाणी अम्बिकापुर से वार्ताएं और साक्षात्कार का प्रसारण
Ø रायपुर दूरदर्शन  से कविता पाठ का प्रसारण
Ø महत्वपूर्ण मंचो से कविता पाठ
Ø प्रगतिशील लेखक संघ अध्यक्ष ,सरगुजा इकाई



एक
 पीली दुपहरी वसंत की

 

मेरी स्मृतियों में ठहरी है

वसंत की एक पीली दुपहरी

 जब सरसों के खेतों में 

 बिखेर दी थी तुमने अपनी उज्जर हंसी

 और कच्ची सड़क के दूसरी ओर

 गेंहूँ के खेत हरियर हो उठे थे

 तुम्हे याद है  वह बँसुहार

 जिससे खरीदी थी तुमने कंघी

 मैने कहा था क्या तुम बांसुरी नहीं बनाते

 वह हैरान देखता रह गया था

 जमीन पर सजी अपनी दुकान

 रास्ते मे अमरूद बेचती औरत ने

 ज्यादा तौला था अमरूद

 तुमने भी मूल्य समझा था

 होड़ लगी हो जैसे तुम्हारे बीच

 एक दूसरे को अधिक देने की

 सरई के पेड़ों पर मैना मुस्कुराई थी तब

 और पुटुस जगमगा रहे थे

 अमराइयों में  गईं हैं बौरें

 उमग आया है वसंत  

 आओ हम भी लौट चलें गांव

 कि बंजर होती दुनिया मे

 पीली हंसी और हरियर प्रेम

 उपजता रहे

 बनी रहे मन की नमी

 

ताकि बचा रहे नाम का अर्थ


क्षा नौ

मामूली सा सरकारी कमरा नं पांच

बारिश थमी है अभी

और खिड़की पर थिरकती

सुनहरी धूप में गुम

एक साधारण सी लड़की

हिदी के नए शिक्षक की हाजिरी में

अपने नाम की पुकार से चौंक जाती है

 
बहुत खूब!

किसने रखा है तुम्हारा नाम

जानती हो अपने नाम का अर्थ ?

तुम्हारे नाम में छुपा है भाव

बीहड़ मे कोमल के सृजन का

आगे का समय कठोरतम होगा

शब्द की तरह जीवन से

खत्म हो जाएगी कोमलता 

 

लड़की ! करना अपने नाम को सार्थक

फैलाना सब तरफ प्रेम की उजास

जहाँ नरमी  है वहां नमी है

है वहीं शेष कुछ मानवता

पूरी कक्षा हंस रही थी मन ही मन

और वह लड़की पैर के नाखूनों पर

नजरें टिकाए सोच रही

कि आगे कैसे बचाएगी वह 

प्रेम भरी ओस सी आंखें

और लोक की नरम जमीन

नाम के अर्थ तक पहुँचना

कहाँ है इतना आसान

 

अब भी जब कोई पुकारता है उसका नाम

उसे याद जाती है

वर्षों पहले गुरु की दी नसीहत

डर जाता है उसका मन

कि पत्थर होते  समय  में

जमा होती मुश्किलों की काई को धोना

कितना मुश्किल जब

 

फाइनल ईयर की लड़कियां

 

मुस्कुराती हैं

खिलखिलाती हैं

स्कूटी के शीशे में

खुद को संवारती

कॉलेज बिल्डिंग के साथ

सेल्फी लेतीं है

फाइनल ईयर की लड़कियां

 

ग्राउंड स्टाफ से सीखती हैं

जीवन का पाठ

विषमताओं से जूझने की कला

उनके मन के सपने

नीली चिड़िया के साथ

उड़ जाते हैं दूर आसमान में

 

भूगोल के पन्ने पलटते

कर लेती हैं यात्राएं असंभव की

सेमिनार और असाइंमेंट में उलझती

कविता की लय में

तिनके सी बहती

वर दे, वीणावादिनी वर दे

की तान में

सबसे प्यारा हिंदुस्तान की

लय के साथ

रस विभोर हो जाती

जी लेती है क्षणों को

 

निबंध और पोस्टर लेखन मे

नारी जीवन का मर्म अंकित करती

ये फाइनल ईयर की लड़कियां

अंतिम साल को जी लेने की

कामना से भरी

विदा के मार्मिक क्षणो में मांगती हैं

बिन बोले आशीष गुरुओं का

वे

खुश रहो ! के मौन शब्द

पढ़ लेती हैं और मुस्कुरा देती हैं

 

नीले पीले दुपट्टों वाली

गाढ़े सपनो वाली

तीन सालों की पढ़ाई के बाद

जाने कहाँ चली जाती है

ये फाइनल ईयर की लड़कियां।

 



बापू के चश्मे के पार की नायिकाएं 

 

सड़क पर देखा मैने

सच का करुण चेहरा

स्वच्छता मिशन की खाँटी नायिकाएँ

ठसम ठस्स कचरे से भरे रिक्शे

खीचते चल रही थी जांगर खटाते

क्या यह सबका पाप धोने वाली

पुराणों से उतरी गंगाएँ हैं?

नहीं ये औरतें हैं

इसलिए लोग इन्हें

कचरावाली कहते हैं

मां कहलाने के लिए तो

नदी होना जरूरी है

 

दीवार पर बना है बापू का चश्मा

वे देख रहे हैं सब

कहते हैं-

मैं ईश्वर के सबसे करीब बैठता हूँ

देखता हूँ कि ईश्वर के काम करने का ढंग

ठीक इनके जैसा है

 

स्वच्छता का

राष्टीय पुरस्कार मिला है शहर को

उसमें इनके ही पसीने की चमक है

पर पसीने की चमक से

पेट की भूख

और सम्मान का उजाला नही बढ़ता

इंसान गुजरते जाते हैं किनारे से

पर गौरव पथ के बीच लगे पौधे

करते हैं यशोगान इनका

चमचमाती सड़क

स्वागत करती है बाहें फैला कर

 

अरे देखो!

चौक की हरी बत्ती भी अब बोल पड़ी

जाओ, जल्द निकलो

मांगो अपना वाजिब हक

कि दुनिया सिर्फ

महंगे रैपरों, ब्रांडेड चीजों के कवर

और बचा हुआ खाना फ़ेंकनेवालों की नही है



खुरदुरी
हथेलियों में उगा नया ग्लोब 

 

रीता ऑटो वाली मिली थी

जब पहली बार

उस रात उसकी पहली सवारी थी मैं

उसने दिखाई थी मुझे

जीवन की कुछ परछाइयां

चौक चौराहों से भागती स्ट्रीट लाइटों के बीच

 

सादा दुपट्टा ओढ़ लूं

और मौन हो जाऊं

उसके रचे एकांत को नियति समझ लूँ

चलती रहूँ जीवन की

अंधी पगडंडियों पर

मुकर्रर हुआ था यही

उसकी आखिरी सुनवाई में

 

सड़क पर नजरें जमाये

दोनो हाथों से हैंडिल थामें

यह बताते उसे नहीं था कोई विषाद

बल्कि सुनहरा तेज था सांवले रंग पर

पानी के प्रिज्म से टकराकर

पड़ी हों जैसे धूप की किरच  

वह स्त्री नहीं

सप्तवर्णी चिड़िया नजर आई मुझे

 

ठोस इरादों वाली औरते काटती हैं इसी तरह

वर्जनाओं की बेड़ियां बिना उदास हुए

समय की मार सहते

जो नहीं टूटतीं

वे बचा लेती हैं अंतस के गीत

उड़ने नही देतीं दुपट्टे का हरा गुलाबी रंग

रेत होते सपनों पर 

रोपतीं है चुटकी भर उम्मीद

ऐसी ही औरतों की आँख मे बसंत ठहरा है

जहां पीले फूल उमगते रहते हैं

 

अपने भविष्य का हरापन बचा पाना

अकेली औरत के लिए कोई खेल नही

हर पल धोते रहना है उसे

मन की खारी परतें 

लड़ती रहना है नर पिशाचों से

 

खुद के पैरों खड़ी

! नये युग की औरतों

देखो!अपनी खुरदुरी हथेलियां 

उग आया है उन में एक नया ग्लोब

भोर चल कर रही है

तुम्हारे जागने से

सुनो उसकी मद्धिम पदचाप

सब सुनों

 

 

मन की तलछट से उगी हरी धरती

 

की तलछट में

किर्च- किर्च स्मृतियो का जुटान

होता गया समय के साथ

वे सोई पडीं रहीं

बिन करवट लिए

 

कुछ स्मृतियाँ प्रेम की तरह कोमल थी

कुछ लोक की तरह सुंदर

और कुछ संघर्ष की

जो कभी नोटिस ही नही हुईं

धूपछाही समय में ये

तरंगित होती रही

मन के किसी कोने में

 

धीरे धीरे सयानी हुईं यह स्मृतियां

एक दिन सघन हो उठीं

और सुबक कर रोते रहे पहरों तक

मन के भीगे भाव

शब्दों के कांधे रख अपना सर

 

अभिव्यक्तियाँ फूटीं

स्याही बनीं

बिखर गईं सादे कागज पर

स्याही का रंग हरा हो उठा

जिसने भी पलटा उन पन्नो को

उसे धरती दिखी हरी भरी

जिसने भी पढ़ा

कहा, भाव यही हों

जो हरियर कर दें

इस लाल होती धरती को

 


गुलबिया
!

 

सुनो स्वीटी !!

तुम गुलबिया हो ?

वही जो मिली थी मुझे 

साल के हरीले वनों में

 

तुम्हारी सेमल पात सी हंसी

गुदगुदाती रही है

मेरे निराश क्षणों को..

कैसे पलक झपकते ही

कूद गई थी

पहाड़ की तराई वाली

बर्फीली नदी में

जादूगरनी हो तुम

सोचा था मैंने

 

फेंटे में बांध सावन

बीज छीटती हो खेतों में

तो सारी प्रकृति नीली हो जाती है

अपने हिस्से की खुशी

मुट्ठी में बंद किये नापती हो दूरियां

मनुष्येतर जगत की

 

बहते पानी के दर्पण मे

संवारती हो अपनी सुंदरता

गंगा इमली की पायल पहन

जब वासंती सी नाचती हो

तब पतझड़ी मौसमों की कोख में

खिलते हैं पलाशवन

 

कटे पेड़ों की ठूंठ को

छाती से लगाकर पी लिया करती हो

उनकी पीड़ा

गुलाल सी उड़ती हो बन में

महुये सी महकती हो

तुम्हारे आदिम राग से

फूल जाती है धरती की छाती

खिल जाते हैं वनफूल

 

सुनो ! इतना ही कहना है

मत आओ शहर

यहाँ व्यर्थ ही खर्च हो जाओगी

तुम्हारी सहजता को 

सोख लेगा सीमेंट का यह जंगल

बचा लो अपना नाम

भरम है   गुलबिया से स्वीटी बनना ............

 

 


मूर्ति भंजकों के प्रति

 

मूर्तियों को तोड़ने के लिए

जुटाई गई भीड़

क्या सचमुच जानती होगी

मूर्ति के विचारों को ?

कभी देखी होगी

'राज्य और क्रांति' की जिल्द

'सत्य के प्रयोग' से

हुए होंगे रूबरू

या पन्ना भी पलटा होगा

संविधान का?

 

ये नही जानते

जातिगत अपमान का दंश

नही जानते कृतज्ञता

नही जानते करोड़ों सपनों का

पसीना लगा है

इस देश को रचने में

ये सभ्यता की सीढ़ियों को हटाते

नही सोचते

कि संस्कृति का क्षरण हो रहा है

तोड़ते जा रहे

वापस लौटने के लिए बने पुल

 

मूर्ति भंजको के अट्हास में

विध्वंस का संदेश प्रसारित होता है

वर्तमान की लड़ाई इतिहास से करते

इन्हें पता नही

भविष्य इनकी पीढ़ियों के सामने

इन्ही खंडित मूर्तियों को रखेगा

अमानत के रूप में

 

पर क्या नाश के पक्षगामी

तोड़ पाते है मूर्तियों के विचारों को ?

क्योंकि जितनी प्रचंडता से

उनके विग्रह पर चलते हैं हथौड़े

उतनी ही प्रखरता से वे

जी उठते है हर बार

पहुंचते हैं जन जन तक

 

सोचती हूँ मूर्तिभंजन की संस्कृति

किस भूमि में उपजती है

कौन सिरज रहा होता है इतनी नफरत

संवैधानिक देश में यह काली पताकाएं

कट्टरता की नई व्याख्याएं हैं

ये हवा हैं रुकेंगी नही

गुजरने दो सर ऊपर से

दिल थामे रहो

ये हवा बदलेगी एक दिन


मृदुला सिंह
सम्प्रतिअंबिकापुर
मोब. 6260304580

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