दशमेश सिंह गिल “फ़िरोज़”
पैदाइश : फ़िरोज़पुर, पंजाब
रिहाइश: वैंकूवर, कनाडा
■ ग़ज़ल
रात से लगता है दिन में डर मुझे
दिन से डर लगता है फिर शब भर मुझे
छोड़ कर तुझ को चला जाऊँ कहीं
ऐ ज़माने तंग इतना कर मुझे
पूछता है क्यूँ हुई अपनी शिकस्त
घेर कर अक्सर मिरा लश्कर मुझे
कांपता साया मैं देखूँ और वो
देखता है कांपते थर थर मुझे
ज़िंदगी करती है मेरी मिन्नतें
इक दफ़ा फिर से मुहब्बत कर मुझे
बदगुमाँ होने के दिन फिर आ गए
फूल फिर लगने लगे पत्थर मुझे
रूह की बरसों पुरानी ज़िद वही
बस निकालो जिस्म से बाहर मुझे
जब तलक सय्याद छोड़ेगा फ़िरोज़
छोड़ देंगे तब तलक तो पर मुझे
■ ग़ज़ल
आँख मिला कर बात नहीं करता मुझसे
सूरज दिन भर बात नहीं करता मुझ से
बात नहीं करता मुझ से वो चारागर
ज़ख़्मे दिल पर बात नहीं करता मुझ से
तारे तो फिर दूर नगर के वासी हैं
चाँद भी अक्सर बात नहीं करता मुझ से
अब भी है सीने में मेरे बरसों से
लेकिन ख़ंजर बात नहीं करता मुझ से
वादी चुप है, बादल चुप हैं दरिया चुप
सारा मंज़र बात नहीं करता मुझ से
जितने भी फैंके थे तुम ने उन में से
इक भी पत्थर बात नहीं करता मुझ से
सारे कमरों पर दस्तक दे आया हूँ
सारा ही घर बात नहीं करता मुझ से
बात न करती है बेदारी अब कोई
और दर्दे सर बात नहीं करता मुझ से
ऐ मेरी तन्हाई, घर में कोई भी
तुझ से बेहतर बात नहीं करता मुझ से
■ ग़ज़ल
कोई यख़पोश मौसम गर चमन को घेर ले तो?
गुलाबे सुर्ख़ की रंगत अगर पीली पड़े तो?
लहू दिल के किसी ग़ोशे से फिर रिसने लगे तो?
हमारे ज़ख़्म तन्हाई में उस ने छू लिए तो?
जिसे अपनी हिफ़ाज़त के लिए ऊँचा बनाया
मिरे घर की वही दीवार मुझ पर आ गिरे तो?
दिखाई क्यूँ नहीं देती मुझे उलझन कहाँ है
अगरचे मिल गए दोनों ही रस्सी के सिरे तो
हमारी आपसी दिलचस्पियाँ कम हो न जाएँ
मिटा बैठे बदन से हम बदन के फ़ासले तो
फ़लक़ ख़ाली न कर देते मुहब्बत करने वाले
अगर उन से हक़ीक़त में सितारे टूटते तो
तही दस्ती का ये आलम है वो भी दे न पाऊँ
अगर मुझ से कुई इक दिन मुझी को माँग ले तो
शहीदाने वफ़ा का हम को ओहदा कौन देता
नफ़ा नुक़सान उल्फ़त में अगर हम सोचते तो
तिरी यादें भी इक दिन साथ मेरा छोड़ देंगी
कि आँखें फेर लीं मुझ से तिरी तस्वीर ने तो
मिरी तन्हाई ही सब से बड़ी दौलत है मिरी
तिरी सोहबत अगर मुझ से ये दौलत छीन ले तो?
■ ग़ज़ल
नाख़ुदा में और ख़ुदा में बहस होनी चाहिए
अब दवा में और दुआ में बहस होनी चाहिए
बहस होनी चाहिए बेदर्द की बेरहम से
उम्र और दशते बला में बहस होनी चाहिए
कौन सा बेहतर तरीक़ा बात मनवाने का है
ज़िद में और नाज़ो अदा में बहस होनी चाहिए
क्यूँ भटकते फिर रहे हैं देर से सहराओं में
कारवाँ और रहनुमा में बहस होनी चाहिए
मैं रहूँ पस्ती की जानिब तुम बुलंदी की तरफ़
और फिर अर्ज़ो समा में बहस होनी चाहिए
हिज्र से मय की बहस इक शाम करवाएँगे हम
ग़म में और ग़म की दवा में बहस होनी चाहिए
कौन मेरे ख़ूने दिल से सुर्ख़ ज़्यादा है फ़िरोज़
लाला ओ गुल और हिना में बहस होनी चाहिए
■ ग़ज़ल
दिल में बैठा है मिरे दरिया की तुग़ियानी का डर
बाप डूबा था मिरा सो है मुझे पानी का डर
अहले दिल को कब रहा है आलमे फ़ानी का डर
डर किसी राजा का है न ही किसी रानी का डर
बेकफ़न भी कब्र में तदफ़ीन हो सकता हूँ मैं
लाश को होता कहाँ है अपनी उरियानी का डर
नफ़सियाती माहिरों से पूछ कर मुझ को बता
ग़ैर वाजिब तो नहीं चिड़ीओं में वीरानी का डर?
है सज़ा के ख़ौफ़ से ज़्यादा मुझे ख़ौफ़े ज़मीर
क़ैद के डर से ज़्यादा है पशेमानी का डर
चाहता कब है कुई साथी दिले ख़िलवत पसंद
है उसे महफ़िल पसंदों की मेहरबानी का डर
ख़ारिजे मतला न कर दे एक दिन उस को फ़िरोज़
मिसरा ए ऊला को है अब मिसरा ए सानी का डर
■ ग़ज़ल
नदी में जो गिरे लाज़िम नहीं पानी से मर जाए
मगर मुमकिन है वो इंसाँ परेशानी से मर जाए
लुटा कर बर्ग सारे, चाक दामानी से मर जाए
कहीं ये पेड़ सर्दी में न उरियानी से मर जाए
मज़ा आए तिरी सोहबत मिटा दे गर ग़मे दुनिया
मज़ा आ जाए गर ये बादशाह रानी से मर जाए
जले जंगल तो सारे पेड़ जल कर ख़ाक हो जाएँ
बचे जो पेड़ वो इक रोज़ वीरानी से मर जाए
ज़रूरत ही न हो उस को सज़ा ए मौत देने की
अगर हस्सास हो क़ातिल पशेमानी से मर जाए
चराग़ ऐसा फ़ना हो जाए जो ख़ुद आग में अपनी
नदी ऐसी जो ख़ुद इक रोज़ तुग़ियानी से मर जाए
■ ग़ज़ल
विसाल के लिए ये एहतिमाम रक्खा है
सजा के झील में माहे तमाम रक्खा है
किताब लिक्खी है मैंने ग़मे ज़माना पर
और उस का नाम ग़मे नातमाम रक्खा है
मैं सुब्ह शाम उसी की देखभाल करता हूँ
तुम्हारे ज़ख्म ने मुझ को ग़ुलाम रक्खा है
गली में आप की रक्खे हैं पाँव इज़्ज़त से
वहाँ प सर भी बसद एहतराम रक्खा है
रहे उम्मीद तो रक्खी है दूर दूर उस ने
पर उस ने दश्ते बला गाम गाम रक्खा है
बनाई है तिरी तस्वीर इक मुसव्विर ने
और उस का नाम गुले सुर्ख़ फ़ाम रक्खा है
नशा ए क़रब ने रक्खा ग़ज़ाल पा मुझ को
सूरूरे ग़म ने मुझे ख़ुश ख़िराम रखा है
चलो भला हुआ उस ने फ़िरोज़ और मैंने
तमाम हो चुका क़िस्सा तमाम रक्खा है
■ ग़ज़ल
कुछ परिंदे जब सरे शाख़े शजर लौटे नहीं
तो शजर पर फिर कभी बर्गो समर लौटे नहीं
जो गिरे इक बार ख़ाके कूचा ओ बाज़ार में
दामने मिज़गाँ में वो लालो गुहर लौटे नहीं
जो कफ़स को तोड़ने में छिल गए थे इक दफ़ा
जिस्म पर बुलबुल के फिर वो बालो पर लौटे नहीं
मशक भरने तुम भी मत जाना सराबों की तरफ़
तुम से पहले जो गए वो हमसफ़र, लौटे नहीं
वो न लौटे, ले गए जो छीन कर सब्रो करार
दे गए हम को जो आबे चश्मे तर लौटे नहीं
कह गए थे आएँगे वापिस मगर आए न वो
कह गए थे लौट आएँगे मगर लौटे नहीं
इस तरह बस एक आहट पर ही जम जाते हैं कान
जिस तरह दर की तरफ़ जा कर नज़र लौटे नहीं
क्या तलिसमे चश्मे साक़ी ने तुम्हें भी रख लिया?
ले के तुम भी मरहमे जख़मे जिगर लौटे नहीं
जो सिपाही दफ़्न होने गाँव लौटे जंग से
जिस्म तो लौटे हैं लेकिन उनके सर लौटे नहीं
एक दिन हो जाए रुख़सत वक़्त पर शब तो फ़िरोज़
क्या बने गर वक़्त पर उस दिन सहर लौटे नहीं
संपर्क:
dashmeshgill@hotmail.com
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