Monday, May 13, 2013

रिपुदमन परिहार


जन्म १ फरवरी १९८९  को गाँव नालीभोंजवा किश्तवाड़ में
माँ -     सुश्री गीता देवी
पिता -   श्री चमन लाल परिहार
शिक्षा -   जम्मू वि० वि० से जीवविज्ञान में परास्नात्तक
लेखन -   २००३ में  कविता से लेखन  शुरू किया
प्रकाशित - शीराज़ा और कुछ दैनिक पत्रों में
अन्य -     आकाशवाणी से कविताओं का प्रसारण , अनेक मंचों से कविता पाठ, अभिनय से भी जुड़े हैं।

रिपुदमन परिहार अंतरमुखी स्वभाव के युवा हिन्दी कवि हैं। कविता के संस्कार इनको पाठ्यक्रम की कविताओं से मिले।  इन्होंने कविताएँ बहुत कम पढ़ी हैं। यह अपने इर्द-गिर्द को ध्यान से पढ़ते हैं। उसी को लिखते हैं। जहाँ तक इनकी कविताओं का सवाल है, ये अभी कचास के दौर से गुज़र रही हैं पर यहाँ संवेदनशीलता की कमी नहीं  दिखाई देती है। रिपुदमन जैसे युवा जब सामाजिक सरोकारों को अपनी कविता में जगह देते हैं तो अच्छा लगता है।  ' गुबारे ' के रूप में वायु संग दुम हिलाने का बिम्ब इनकी  मजबूरी और डर को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है। 'टुकड़े के भूखे' कविता में वे  भ्रष्टाचारी नेताओं , अधिकारियों पर व्यंग्य करते हैं। आशा है आने वाले दिनों में इनकी दृष्टि और भी साफ होगी। ढेरों शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत हैं  रिपुदमन की तीन कविताएँ।



गुब्बारा

मैं गुब्बारा हूँ
एक बेबस गुब्बारा
देखकर लटका सूली पर
खुश होता ज़माना सारा
एक तरफ हूँ रस्सी से बँधा
दूसरी और भरी है हवा
अब वायु लहर संग
दुम न हिलाऊं तो करूँ क्या
न रस्सी कटवा सकता हूँ
न हवा निकलवा सकता हूँ
न वायु से भिड़ सकता हूँ
मेरी यही मजबूरी है
तभी तो हर बात से डरता हूँ ...

रोशन गगन
दमकता है हम पर
जैसे उड़ती है खुशबू
हवा के दम पर
इसी हौंसले का लिफाफा
लपेटता हूँ गम पर

कभी रूठता हूँ
कभी खुद को मनाता हर कदम पर ...

यह दास्ताँ सिर्फ मेरी नहीं
है हर किसी की
लटक रहा है जो
धरती और आकाश के बीच।  

        





टुकड़े के भूखे बेशर्म

कभी चौक पर
कभी दफ्तर में
कभी गलियों में धन्धा चलाते हैं
बड़े बेरहम हैं
जालिम हैं
लाचार मानव का खून सुखाते हैं

लड़ते भी झगड़ते भी
पर नहीं छोड़ते टुकड़ा
मरते - डरते भी  नहीं बदलते
चाहे काला हो जाये मुखड़ा

छोटा टुकड़ा मिले
छुप के निगल जाते
बड़ा टुकड़ा मिले
आपस में भिड़ जाते
उस टुकड़े को लेकर
गुमनाम जगह पहुँच जाते
कौन कितना खायेगा
यह तरकीब बनाते ...
कैमरे के सामने मासूम बनकर
झूठी ख़बरें फैलाते -

 टुकड़े के भूखे

एक ही बोली
एक ही क्रिया
एक ही कर्म
शहर में फैल चुके हैं

ऐसा कर्म
कैसा धर्म
किसको शर्म
ये टुकड़े के भूखे बेशर्म
मेरे देश को चलाते हैं
महान कहलाते हैं।













कब हुआ कहाँ हुआ कैसे हुआ
 
बारिश हुई
मगर बारूद की
फुंकार मारता तूफान
कितनों को लील गया
कितनो को प्राणहीन बना गया ...

मिलने पहुँचा मैं
इक जिन्दा लाश से
पड़ी हुई थी जो
नंगे पेड़ की छाया में
झुर्रियों से भरा था
तीता अनुभव
सूखी आँखों से
टपकती पीड़ा की बूँदे
भूख थी नहीं
प्यास भी नहीं
था अचेत अस्तित्व
तभी वीरान वादियों से
निकली गहरी साँस
उमड़ पड़ा
खामोश समन्दर में उफान -
' बहरा कर गई मुझे
अपने बच्चों की आखिरी चीखें
छीन गई मेरे नेत्रों से उजाला
वो आग की तेज लपटें
एक साथ जलती हुई पाँच चिताएँ
मोम की तरह पिघला गई
मेरे जीने के प्रश्न को '

कितनों को उड़ा गया वो तूफान
कितनी बस्तियां बन चुकी शमशान
स्वपन टूटा और खुद को पाया
लोगों की भीड़ में
उमड़ पडी थी जो
शमशान की चौखट पर
हर कोई यही पूछता था -

कब हुआ कहाँ हुआ कैसे हुआ ?

 

सम्पर्क:-
द्वारा - आर०  सी० खन्ना 
हाउस नंबर - १/४२ , पंधोका कॉलोनी
पलोड़ा , जानीपुर , जम्मू


(इस्तेमाल किए गए कुछ चित्र गूगल से साभार लिए गए हैं)


प्रस्तुति :- 




कमल जीत चौधरी
गाँव व डाक - कली बड़ी , साम्बा ,[ जे० एंड के० ]
ई मेल - kamal.j.choudhary@gmail.com
दूरभाष - 09419274403

2 comments:

  1. रिपुदमन जी गुबारा कविता ने प्रभावित किया। अच्छी सँभावनाएँ। वधाई। माननीय कमल जी का अभार

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  2. कविताओं में व्याप्त अक्स व्यंग की तीवरता लिए हैं /इन्हें कविता में काव्यतव को समझना होगा /

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