Friday, May 10, 2013

हिमांशु शेखर



मूलतः मिथिला के मधुबनी जिले में जन्म। पढ़ाई और फिर रोजगार की तलाश बेगूसराय जनपथ से शुरू। दादा जी (स्व. पंडित नागेंद्र मिश्र) राज घराना (दरभंगा महाराज) में पंडित थे। लिखने पढ़ने का शौक वंशानुगत मिला। पिताजी संस्कृत विद्यालय में किरानी और मां मिडिल स्कूल की शिक्षिका। एक बड़ी बहन और एक छोटा भाई कुंदन कुमार मिश्रा (सेना में धर्म गुरु) है। दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर के बाद अमर उजाला में उप-संपादक के पद पर कार्यरत।





माँ और बच्चा

जन्म लेने से पहले ही
पेट मे लात मारता है बच्चा
बिना परवाह किए
अपना हिस्सा लेता है बच्चा।
जन्म लेने के बाद 
माँ की छाती से चिपकता है बच्चा
जिंदा रहने के लिए 
माँ का दूध पिता है बच्चा।

वर्णमाला सीखने से पहले
माँ बोलता है बच्चा
माँ सामने नहीं देखकर
रोता है बच्चा।
माँ की दो अंगुलियाँ थामकर
धरती पर पग धरता है बच्चा
रिश्ते नाते भी
माँ से ही सीखता है बच्चा।
इमदाद के लिए 
माँ पुकारता है बच्चा
जब दौड़ती है माँ तो
खिलखिलाता है बच्चा।

बच्चे को तैयार कर
स्कूल भेजती है माँ
हल्की चोट लगने पर 
रोने लगती है माँ।
भूख प्यास सबकी
चिंता करती है माँ

बच्चे को हर पल बड़ा
होता देखती है माँ
देर से घर आने को
खूब समझती है माँ।
सच बोलने में 
झूठ पकडती है माँ
ठेस पहूँचाने पर भी
गले लगाती है माँ।

घर मे  बहू आने पर
चितचोर होती है माँ
अपनी अनदेखी पर भी
चुप रहती है माँ।
अब चार शाम की जगह
दो शाम खाना खाती है माँ
स्वर्ग जैसे घर की जगह
ओल्ड ऐज होम में दिखती है माँ।
चेहरे पर शून्य भाव लिए
राम नाम भजती है माँ
बेटा-बहू  की लड़ाई का
मर्म जानती है माँ।



कोर्ट में हिंदी का बयान

हुज़ूर, माई-बाप
दुहाई है सरकार
पता नहीं,
क्या है मेरा अपराध.
कई भाषाओं को
दिया है मैंने जन्म
दिया उन्हें संसार में
फैल जाने का ज्ञान
फिर भी, मुझे
सहना पड़ रहा है अपमान.
यहाँ इस कठघरे में
खड़ी मैं
सोच रही हूँ
जीवित रहने का उपाय
वहां मेरे पोषक
पहना रहे मुझे
फूलों का हार
मेरी इज्जत को बार-बार
करते हैं तार-तार
साल के पूरे दिन
मैं रहती उनके साथ
हुज़ूर, माई-बाप.
दुहाई है सरकार


मैं जो कहूँगी
सच कहूँगी
सच के सिवा
कुछ नहीं कहूँगी
मुझे याद नहीं
किसी भाषा का जन्मदिन
न ही मुझे याद
किसी भाषा की सालगिरह
हाँ, शुभ कर्मों के लिए
लोग उलटते हैं पंचांग
देखते हैं दंड और पल
फिर भी,
आज मैं खड़ी हूँ निर्बल.
कोई सहारा नहीं देना चाहता
बस यूं ही
कागज पर पड़ा देखना चाहता
अस्पताल में उस मरीज की तरह
जो अंतिम साँस के लिए
कर रहा हो जिरह
हुज़ूर, माई-बाप
दुहाई है सरकार.

मैं मरना नहीं चाहती
बेमौत
पर, सजा मिलने से पहले
पूछना चाहती हूँ कि
कब भारत और इंडिया
में मिटेगा भेद
कब लोगों का
हिंदी से ही भरेगा पेट.




समाज की कसौटी

लाज के मारे झुकी हुई आँखें
पूरे मुखड़े को ढका हुआ
सिर पर चढ़ा पल्लू
चढ़ी हुई कांच की सतरंगी चूड़ियाँ
पैर की अंगुलियों में
कसी हुई चमकती बिछिया
हमारी सभ्यता की सांचे में
कसी हुई नारी की
यही परिभाषा है.
पर, इन्हें देखने वालों का
कुछ नजरिया भी अलहदा है
मुलायम कूचियों से
खिची गई रेखा
चेहरे पर अंगूठे
के सहारे बनाया दाग
हाथ के छिटकने से
तस्वीर पर पड़ी छीटें
कहीं आँखों में लगे
मोटे काजर को पसारते
मानों दर्द के ढबकने से
बाहर आते-आते रह गए।
किसी एक ने देखा तो
दर्द को महसूसते
चित्रकार को बधाई दी
प्रदर्शनी देखने आई भीड़ भी
मर्दानगी का दामन
छोड़ नहीं पाई
दबी, कुचली और फिर
वारांगना या वारवधू
कहने पर भी "ना' मर्दों का
मुंह बंद नहीं करा पायी।   

 

पता -
शिवपुरी मुहल्ला, वार्ड नंबर-37, बेगूसराय, बिहार (851101)
मोबाइल - 0-72980-01575



3 comments:

  1. Himanshu ji is se aage ki kavitai aur drishti ki shubhkaamnaon ke saath badhai.

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  2. हिमाँशु जी बेहतरी की उम्मीद के साथ शुभकामनाएँ

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