Friday, May 24, 2013

हरभजन सिंह हुन्दल



जन्म - 10 मार्च 1934
शिक्षा - एमए, बीटी
संप्रति - पंजाब शिक्षा विभाग के स्कूल में अध्यापन से सेवानिवृत्त
रचनात्मक योगदान - कविता, गद्य और संस्मरणों की सत्तर से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित। सितंबर 1993 से पंजाबी त्रैमासिक 'चिराग' का संपादन। मायकोवस्की, पाब्लो नेरूदा, नाजिम हिकमत, महमूद दरवेज की कविताओं का अनुवाद।
उर्दू में 'पाकिस्तान विच दस दिन' और 'जंगनामा पंजाब' प्रकाशित। अंग्रेजी कविताओं की दो पुस्तकें प्रकाशित।
राजनैतिक वामपंथी आंदोलन में भी सक्रिय। इमरजेंसी में गिफ्तार किए गए।



महमूद दरवेश के नाम!

तुम भी अजीब चीज हो
महमूद दरवेश!

मैं पूछता हूं
'तुम्हारा गांव कहां है...
और कौन सा देश है
तुम्हारा?

कहां हैं तुम्हारी बहनें
और मां...
तुम्हारा माल-भंडार तुम्हारे खेत
तुम्हारी पुश्तैनी जायदाद?

तुम्हारे घर का नंबर क्या है...
गली का नाम
फोन नंबर...
कहां हैं तुम्हारी किताबें
तुम्हारा पासपोर्ट
कंधे से लटकता कारतूसों का झोला
तुम्हारी बंदूक?

क्या तुम्हारे पास संभालने लायक
कोई भी चीज नहीं है?

हां, तुम्हारे पास कविताएं हैं
विविधता से भरीं
जूझतीं
शहीद होतीं!

सच मानना
तुम सच में दरवेश कवि हो
मेरे पास तुम्हारी कविताएं
कई भेस बदल कर
गुरिल्ले-मित्रों की तरह पहुंचती हैं

कहते हैं-
'दरवेशों का कोई घर नहीं होता
प्रत्येक लंबी उदासी * के समय
वे कुछ भी
पल्लू में बांधकर
नहीं चलते!'

बताना जरूर
कि इस समय तुम लंदन में हो
या पेरिस में?
बेरूत में हो, या कि बसरा में या
बगदाद में...?
कुछ याद नहीं!

जहां कहीं भी हो
मेरी आवाज पर कान देना
कविता की रोशनी में
मुझे तुम्हारे रूबरू होना है
गुलाब की बात करनी है
सच की हाजिरी भरनी है
क्या है तुम्हारा और मेरा रिश्ता?
मैं जो अपनी जुबान का
एक गुमनाम कवि हूं

पर ऐसा लगता है मुझे
कि तुम तो
मेरी ही बोली के कवि हो
सूफी दरवेश
'बुल्ला' और 'बाहू'

कहां हैं तुम्हारे जैतून की शाखाएं...?
जख्मी परिंदे की गीत...

लहू भीगी, पैबंद लगी कमीज
तुम्हारे घर की दहलीज?
तंबू के सामने
चूल्हे पर खदकती दाल
जिसे खाते थे चाव के साथ तुम

तुम जिस शहर, महानगर में हो
मुझे आवाज देना
मैंने तुमसे कई राज
साझे करने हैं
मैं जो अपने ही प्यारे वतन में
निर्वासितों की तरह रहता हूं
देश का बागी बाशिंदा हूं
दूषण की काली बरसात में
भीगता परिंदा हूं

मुझे पूछना है तुमसे
कि कैसे मकई के आटे की तरह
तुम शायरी और सियासत को
गूंथकर पकाते हो
कैसे अपने दर्द को
खो गए वतन की पीड़ा में घोलकर
पीते हो, पिलाते हो?

कैसे जिंदा रहते हो?
कैसे जूझते हो?
कैसे मरते हो?

जरा बताना तो
सूली की नोक पर तुम्हें
कविता कैसे सूझती है?

ठोकरें खाते
चलते हुए
तुम्हारी कल्पना की कलम
कोरे कागज पर
कैसे चलती है?

{* गुरुनानक ने अपने जीवन में लंबी यात्राएं कीं। उन्हें दरवेश भी कहते हैं और उनकी ऐसी यात्राओं को बाबे की उदासियां लेना कहा जाता है} - अनुवादक
(अनुवाद - मनोज शर्मा, 17-10-2003 )


 

परीक्षा

मेरी प्रिय
सोना कुठारी में पड कर शुद्ध होता है
तो लोहा भट्टी में पड़ कर
गुलाब की रंगत भी रातों-रात नहीं चमक उठती
सरोपे लेने के लिए जवानी अर्पित करनी पड़ती है

कविता दिलों में ज्यों ही नहीं
बर्छी की तरह उतर जाती
बाल धूप में ही सफेद नहीं होते
आग के दरिया में कूदना कोई खेल नहीं
मान-पत्रों के पीछे वर्षों की कमाई होती है
जलती लाट में हाथ रखना कल्पना की बात नहीं

हमारी बोली में हथेली पर शीश रखना
सिर्फ मुहावरा ही नहीं

मेरी प्रिय
यदि मैं तुम्हारी नजर के काबिल हुआ हूं
तो तुम्हारी मेहरबानी
मैं तो अभी और भी प्रतीक्षा कर सकता हूं
(अनुवाद - तरसेम गुजराल )





पंजाब - एक बिंब

मैं शासकों की दाढ़ के नीचे कड़कती हड्डी हूं
समुद्री लुटेरों की प्रार्थनाओं पर मिला
सुनहरा मौका
घर में जन्मे हुए लोगों की कमअक्ली का
मुंह बोलता प्रमाण हूं।
देश की दुःखती हुई रग हूं
नीम-हकीमों का जानबूझकर बिगाड़ा हुआ मरीज हूं।
फौजी बूटों के नीचे कुचली हुई गेहूं की बाली
हत्यारे की गोली से मरा हुआ मासूम हूं
पुतलियों का तमाशा हूं
बेबसी के मुख से निकली चीख हूं
धारावाहिक पेश किया जा रहा दुःखांत नाटक हूं।
सड़क पर पड़ी लावारिस लाश हूं
पत्रकारों के लिए गर्मागर्म खबर हूं।
शासकों की आयु को लंबा करने का बहुत अच्छा नुस्खा हूं
मैं जो आज रिसता हुआ जख्म हूं
पहले से तो इस तरह नहीं था।

 






शेर की मूंछ

रात होते ही वह चौबारे की छत पर जा चढ़ता
बांस की सीढ़ी को ऊपर खींचकर
छत पर रख लेता
फिर वह सारे गांव को ललकारता
और कहता
है कोई माई का लाल तो बाहर ‌आए
शेर की मूंछ को छूकर दिखाये।

शरीक सारे दरवाजे पर खड़े
ललकारते
और कहते -
अगर सूरमा है तो आ नीचे
पर वो इतना बेवकूफ नहीं
कि अनचाही मौत का स्वागत करे
थक-हार कर लोग लौट जाते हैं अपने घर।

इस तरह हर दूसरे-तीसरे दिन
शौर्य का अभ्यास करता है वह
कई बार जीता
और कई बार मरता है।






अच्छे दिन भी लौटेंगे

अधिक नहीं चलेंगे ऐसे दिन

छंट जायेंगे भय के बादल
मिट जाएगी आतंक की गर्द
प्रतिदिन सुर्खिओं में नहीं होगी
निर्दोष हत्याओं की खबर
उत्तेजित युवा हाथ
कब तक दागते रहेंगे गोलियां
मुस्कुराते चेहरे
फिर लौटेंगे सड़कों पर
फरीद की पंक्तियां
बतायेगी नमाज का समय
बुल्लेशाह के लयात्मक गीत
फिर मुग्‍ध कर लेंगे श्रोताओं को
और गुरुनानक पूछेंगे
पंजाबियों से
किसने बहकाया है तुम्हें
शांत-घरों को
कसाई-खाने में बदलने के लिए
'इंकलाब जिंदाबाद'
भगत सिंह का नारा
दस्तक देगा हर दरवाजे पर
और पूछेगा पंजाबियों से
'क्या अभी तक आपने नहीं की
सही दुश्मनों की पहचान'
भाईयों के खून में
हाथ धोने के दिन समाप्त हो जाएंगे
सीमाओं की दीवारों के किनारे
खिलेंगे लाल गुलाब और
दादी मां सुनायेगी बच्चों को
परियों की कहानियां और
कहेगी,
बच्चो! दीर्घजीवी हो
मेरी उमर तुम्हे लग जाए।



संपर्क -
गांव- फत्तू चक्क, पोस्ट ढिलवां
जिला- कपूरथला (144804)
फोन - 01822-273188 


(इस्तेमाल किए गए कुछ चित्र गूगल से साभार लिए गए हैं)



2 comments:

  1. Salaam Harbhajan jee! Laajavaab.Prernadyak ...
    Acche din aayenge.

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  2. bohut kamaal kavitayen hain wah mazza aa gaya..........aabhar

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