Sunday, August 14, 2022

मुकेश आलम


लुधियाना में रहने वाले शायर मुकेश आलम से मेरा पहली बार मिलना मलेरकोटला में आयोजित होने वाले मुशायरे में  हुआ। पहली ही मुलाकात में उन्‍होंने ऐसे गले लगाया जैसे कोई बरसों पुराना दोस्‍त मिल गया हो। ऐसा जीवन में बहुत कम होता है कि कोई पहली बार मिले और ऐसा लगे कि हम लोग पहले से परिचित हैं। पंजाब में पटियाला यूनिवर्सिटी के पंजाबी विभाग के प्रो. सुरजीत सिंह, उर्दू के शायर अमरदीप‍ सिंह और मुकेश आलम ऐसे ही दुर्लभ व्‍यक्तित्‍व हैं। यह मेरा सौभाग्‍य है कि ऐसे लोग मेरे मित्र हैं। बड़ी सरलता और सहजता के साथ गहरी और सूक्ष्‍म बात कह जाना मुकेश आलम की विशेषता है। 

आज दरवेश शायर मुकेश आलम के जन्‍मदिन पर पूरे सम्‍मान के साथ उनकी कुछ गजलें साझा कर रहा हूं।


 
गजल

ऐ मेरी आवारगी! ये क्या तमाशा कर दिया

तूने मुझको रास्ता करना था, छाला कर दिया

 

बर्फ़ इतनी मुश्किलों से हो के भी सागर हुई

मुझको इस पेचीदगी ने और सादा कर दिया

 

ख़ाक होकर भी रही इक जुस्तजू तेरी मुझे

देख! कूज़ागर ने मुझको तेरा प्याला कर दिया

 

सीप अपने दर्द को मोती बना देती है यार

ज़िन्दगी की तल्ख़ियों ने मुझको मीठा कर दिया

 

यूँ तो आलम में कोई है ही नहीं तुझ सा मगर

इक मुहब्बत की नज़र ने सबको तुझसा कर दिया


 
गजल

 

सुन दिले-बेकार सुन! काफ़ी है क्या?

उसको पाने ही की धुन काफ़ी है क्या?

 

अपनी इक दुनिया बनानी है मुझे

सोचता हूँ लफ़्ज़े-कुन काफ़ी है क्या?

 

दर्द कैसे बांधना है शाइरो..!

फ़ाइलातुन फ़ाइलुन काफ़ी है क्या?

 

घर से निकला हूँ मैं उसको चूमकर

ऐ मुक़द्दर! ये शगुन काफ़ी है क्या?

 



गजल

 

देख न पाई बीनाई जो बैठ के साये रंगों के

नाबीना लोगों ने ऐसे ख़ाब सुनाए रंगों के

 

तुझसे बिछड़कर मैंने तेरी इक तस्वीर बनाई है

पसमंज़र में कुछ उड़ते पंछी हैं पराये रंगों के

 

बाग़ीचे में फूल खिले तो उसकी आँखें भर आईं

माली की बेटी को जैसे रिश्ते आए रंगों के

 

दर्द, मसर्रत, याद, मुहब्बत, नफ़रत, ग़ुस्सा, हैरानी

बेरंगे अश्कों ने सातों रंग दिखाए रंगों के

 

अब तो सारा आलम ही इन रंगों से शर्मिंदा है

मज़हब वालों ने कुछ ऐसे फ़र्क़ बताए रंगों के

 



 गजल

 

बचपन के पीछे दौर-ए-जवानी चला गया

जिस-जिस ने भी ठहरने की ठानी चला गया

 

कुछ वक़्त तो उदास रहा हूँ मैं तेरे बाद

फिर यूँ हुआ कि रेत में पानी चला गया

 

इक लफ़्ज़ ज़िन्दगी है जिसे रट रहे हैं हम

ये और बात लफ़्ज़ से मा'नी चला गया

 

ऐ रास्तो बढ़ा दो तुम्हीं अपने पेच-ओ-ख़म

मेरी तो उसने एक न मानी, चला गया

 

सा रे गा मा की लय मे जो आए हैं सारे ग़म

ज़ख़्मों पा इक जो रंग था धानी, चला गया

 

मैं दर्द हूँ तो वो है हुनर-मंद नस्र का

सो करके मेरे दुख को कहानी चला गया

 


गजल

 

किसे ख़बर थी हवा राह साफ़ करते हुए

मेरा तवाफ़ करेगी तवाफ़ करते हुए

 

मैं ऐसा हंस रहा था ऐ'तराफ़ करते हुए

कि वो तो रो पड़ा मुझको मुआफ़ करते हुए

 

अब इससे बढ़ के मुहब्बत का क्या सिला मिलता

वो मेरा हो गया सबको ख़िलाफ़ करते हुए

 

बस एक प्यार ने सालम रखा हमें यारो

रक़ीब मर गये हम में शिगाफ़ करते हुए

 

उसे मनाने में हमने गंवा दिया उसको

कि शीशा टूट गया धूल साफ़ करते हुए

 


गजल

 

किसे पता था ज़िन्दगी करेगी ऐसे काम ख़त्म

अभी तो कुछ सुरूर भी नहीं था और जाम ख़त्म

 

 हुज़ूर बस चले तो पूरा-पूरा ताम-झाम हो

हुज़ूर चल बसे तो पूरा-पूरा ताम-झाम ख़त्म

 

ये फ़ासले मुहब्बतों की पेशगी रसीद हैं

ये फ़ासले न हों अगर तो सारा एहतराम ख़त्म

 

हमारा तुझसे रब्त बिजली और बल्ब जैसा है

उधर तू फेर ले नज़र, इधर तेरे ग़ुलाम ख़त्म

 

जिसे तराशने, निखारने में उम्र लग गई

चला तो चार नस्ल तक चलेगा और नाम ख़त्म

 

यहाँ से आगे रस्ता चुनना ख़ुद तुम्हारा काम है

चराग़ ने तो कर दिया उजाला, उसका काम ख़त्म


मुकेश आलम

मोबाइल नंबर: 70096-17712

 

प्रस्‍तुति- कुमार कृष्‍ण शर्मा

94191-84412


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