■ ग़ज़ल
रहे जुनूँ जो निशाने क़दम इकट्ठा थे,
वो हम नहीं थे, वुजूदो अदम इकट्ठा थे
हयात अस्ल मआनी में खुल के आयी थी,
उस एक साल में सारे जनम इकट्ठा थे
बस एक हबीब के आने की देर होती है,
सुना है तीन सौ बासठ सनम इकट्ठा थे
यहाँ मैं अपनी उदासी बिताने आऊँगा,
किसी दरख़्त पे लिख दो के हम इकट्ठा थे
शबे फ़िराक़ थी और मैं ख़ुदा से ग़ुस्सा था,
फ़लक़ पे सारे नुजूम एकदम इकट्ठा थे
तेरी छुअन से रवां हो गए हैं, बरजस्ता,
हज़ारों सैल ए तमन्ना के नम इकट्ठा थे,
तुम्हारा हिज्र बहाना बना है पिछलों का,
ये मुझपे आज खुला कितने ग़म इकट्ठा थे
हमारा ज़ेहन भी मस्जिद के सेहन जैसा रहा,
जगह बहुत थी मगर लोग कम इकट्ठा थे
■ ग़ज़ल
अज़ल ता हाल मुक़य्यद सी एक हयात में हूँ,
सज़ा बतौर, किसी और कायनात में हूँ
मेरे तबीब मुझे हिचकियों का नुस्ख़ा दे,
भरम रहे मैं किसी के तसव्वुरात में हूँ
कोई नहीं था, तो ख़ुद से सवाले वस्ल किया,
जवाब आया, "मुआफ़ी हिसारे ज़ात में हूँ
सरे वुजूद कोई कर्बला मुसल्लत है
शदीद प्यास है और वादिये फ़रात में हूँ
तेरा भी कोई तुझे छोड़ के चला जाए,
मैं कुछ दिनों से इसी ख्वाहिशे नशात में हूँ
बशीर बद्र पढ़ोगे, तो मैं मिलूंगा तुम्हें,
उदासी नाम से हज़रत की कुल्लियात में हूँ
■ ग़ज़ल
तुमसे जुड़े हैं जितने मुहब्बत शनास लोग,
दरअस्ल ज़िन्दगी हैं यही सौ पचास लोग
दो रूह, एक छुअन की तमन्ना, मसाफ़तें,
यानी के इन्तेहाई अकेले, उदास लोग
हैरान हूँ के मेरा बुलावा वहाँ, जहाँ,
दहलीज़ पे लिखा है 'महज़ ख़ास ख़ास लोग'
बे मेल निस्बतों के नताएज हैं सब फ़िराक़,
फ़ुरक़त का इर्तिका़ हैं सभी बदहवास लोग
नम की तलाश बीच बयाबाँ में ले तो आयी,
प्यासे खड़े हुए हैं सराबों के पास लोग
रूदाद ए इश्क़ पढ़ने लगा एक बुज़ुर्ग शख़्स,
घेरा बनाके बैठ गये आस पास लोग
■ ग़ज़ल
ऐसी अज़ीयतों में किसी की बसर न हो
लगता रहे के साथ कोई है,मगर न हो
उसने बड़े जतन से सजाया था ये मकान,
मैं चाहता हूं कुछ भी इधर से उधर न हो
जिस तरह झड़ रहा था पलस्तर यहाँ वहाँ,
शायद सफ़र से लौट के जायें तो घर न हो
दफ़्तर की दिन गुज़ारियाँ सोते में बड़बड़ाओ,
ऐसे में एक रोज़ की छुट्टी भी गर न हो
ऐ यार मेरी बात समझ मैं भुगत चुका,
होना है मुनहसिर तो किसी एक पर न हो
इक रात बेबसी ने सिसककर कहा,ख़ुदा
इक शाम भर का साथ, भले उम्रभर न हो
इसके सबब सुख़न है,सुख़न के सबब हयात,
मर ही न जायें यार उदासी अगर न हो
■ ग़ज़ल
जाने क्या कुछ सोच लिया नादानी में,
और फिर अरसा बीत गया हैरानी में
छूने भर से रूह चमकने लगती थी,
शायद नूर बसा था उस पेशानी में
होश और ख़्वाब ने अपनी अपनी कोशिश की,
बन्दा टूट गया इस खींचातानी में
एक लड़की का जिस्म चढ़ा था डोली पर,
एक लड़के का जिस्म गिरा था पानी में
मुझमें और ज़ियादा अंदर मत आओ,
एक आसेब का घर है इस वीरानी में
चाहे सब कुछ देखे फिर भी जाते वक़्त,
टीस बची रह जाती है सैलानी में
■ ग़ज़ल
पता चला है आपके नमक को घाव चाहिए,
तो ये पड़ी है रूह, और कुछ बताओ चाहिए
हथेलियां रगड़ रगड़ के लाल कर चुके मगर,
ये जिस बला की सर्द शाम है अलाव चाहिए
भटकती फिरती एक जोड़ ख़्वाहिशें तो सब्र था,
पर अब क़बीला हो गईं हैं अब पड़ाव चाहिए
मैं बेदिली के बावजूद साथ हूँ,मज़ाक़ है,
अब उसको मेरी शक्ल पे भी हाव भाव चाहिए
भले सभी धनुर्धरों को आँख दिख गयी थी पर,
धनुष की डोर को नपा तुला तनाव चाहिए
रसद तुम्हारे पास, मेरे पास दूरबीन है,
हमारी कश्तियों को एक सा बहाव चाहिए
समय निकालकर बड़ो से बात कर लिया करो,
पुरानी बिल्डिंगों को थोड़ा रख रखाव चाहिए
■ ग़ज़ल
अना पे ज़ुल्म किया है, मुझे नदामत है
मेरा सुकून, तेरा मुंतज़िर है, लानत है
मुझे ये रूह से मिलने का ढोंग नईं करना,
मेरे बदन को तेरे लम्स की ज़रूरत है
वहाँ वहाँ पे मेरा ख़त ज़रूर छू लेना,
जहाँ जहाँ पे नमी की कोई अलामत है
कल एक फ़क़ीर ने ताकीद की, कफ़्फ़ारा कर,
तेरी दुआ पे कोई बद्दुआ मुसल्लत है
किसी से मिल न सको तो ख़ुदा का शुक्र करो
किसी से मिलके बिछड़ना बड़ी अज़ीयत है
■ ग़ज़ल
घर में एक रात ज़ुबानों पे था हाय अब्बू,
फिर कभी लौट के वापस नहीं आये अब्बू
आख़िरी पहर में जाके कहीं नींद आती है,
और फिर ख़्वाब में सीने से लगाये अब्बू
यूँ तो नौ फ़र्द थे हालाँकि भरम रखने को,
पीर कोई न समझ पाया सिवाय अब्बू
मेरा बेटा भी बड़ा होके समझ जाएगा,
मैं भी रोता था खिलौने नहीं लाये अब्बू
काश एक रोज़ मैं जागूँ तो पुराने दिन हों,
उनको अख़बार दूँ और पूछ लूँ ,'चाय अब्बू?'
जब सफ़र के लिए तैयारियाँ करते करते,
थक गए तो मेरे हाथों से नहाए अब्बू
■ ग़ज़ल
घर के पहलू में खड़ा था जो शजर, ख़त्म हुआ,
अब दरीचे से हवाओं का गुज़र ख़त्म हुआ
लम्बी बीमारी ने कल आख़िरी हिचकी ले ली,
ज़िन्दगी जीत गयी मौत का डर ख़त्म हुआ
रूह को चाहिये ऐसा कोई जिस्मानी पड़ाव,
जिसको छूते ही लगे आज सफ़र ख़त्म हुआ
शाम थी मैंने जिसे वक़्त ए सहर मान लिया,
रात घिर आयी तो नैरंग ए नज़र ख़त्म हुआ
मुड़के जाते हुए, मैंने उसे देखा भी नहीं,
और जब बाद में ग़ुस्से का असर ख़त्म हुआ
ये जो निस्बत है अजब शै है ज़रा देखें भला,
एक इंसान गया सारा नगर ख़त्म हुआ
■ ग़ज़ल
मज़ाक़ मत उड़ाइये लिबास का,
कभी हमारा खेत था कपास का
गुज़र नहीं सका है सात साल से,
वो रास्ता 'सराय-हौज़ ख़ास' का
कहाँ ये ला शऊर इत्र वित्र हुंह,
मुकाबला करे हैं तेरी बास का
सिमटने लग गया हूँ अपने आप में,
दबाव बढ़ रहा है आस पास का
बवक़्ते फज्र पाक साफ़ ओस से,
वुज़ू करा दिया गया है घास का
■ ग़ज़ल
आपको लाख भरम हो के सुख़न साज़ी है,
शेर अगर ख़ुद पे न गुज़रे हों तो लफ़्फ़ाज़ी है
पेट हर दूसरे आज़ा का ख़ुदा है शायद,
एक आवाज़ पे बिकने को बदन राज़ी है
हद को पहचानें कोई ज़ात मुक़य्यद न करें,
हद से बढ़ जाये तो परवा दखलंदाज़ी है
घोल रक्खा है यहाँ ज़हर तेरी यादों ने,
लोग बकते हैं पहाड़ों की हवा ताज़ी है
सारी बेज़ारियाँ रखती हैं कहानी अपनी,
हालो ओ फ़रदा की नौइयत का सबब माज़ी है
■ ग़ज़ल
पत्थर जानों को मख़मल कर देते हैं,
अच्छे लहजे मुश्किल हल कर देते हैं
शहर बसा देते हैं हम क़स्बों के लोग,
और अपने क़स्बे जंगल कर देते हैं
बैरी धरकर आते हैं, बहमन का रूप,
और हम दान "कवच-कुंडल" कर देते हैं
उसका हाथ पकड़ते दम ,ये भूल गए,
हम सोना छू कर पीतल कर देते हैं
शायद मेरी ज़ेहनी हालत ठीक नहीं,
वरना इतने ग़म पागल कर देते हैं
■ ग़ज़ल
एक दिन रात के गिरये का लतीफ़ा होना,
यानी जादू है कोई, हिज्र पुराना होना
आज बस नफ़्स की सुन,आज तू इंसान ही रह,
यार चुभता है तेरा रोज़ फ़रिश्ता होना
चार छे रोज़ तो लगने हैं मगर चाँद मेरे,
मुझसे अब और नहीं होगा तुम्हारा होना
ख़ुद से मिलने की मुझे पहली दफ़ा फ़ुर्सत थी,
मुझपे एहसान रहा मेरा अकेला होना
ख़ुदकुशी ज़ात पे लाज़िम सी हुई जाती है,
पर किसी शख़्स के होने का दिलासा होना
एक दो वक़्फे उबासी के ज़रूर आते हैं,
ग़ैर मुम्किन है कोई नस्र मुरस्सा होना
मैंने चाहा था मदीना में तेरे हाथ में हाथ,
यानी इक़्सामे मुहब्बत का इकट्ठा होना
■ ग़ज़ल
उस मुसाफ़िर के हरे लफ़्ज़ असरदार हुए,
मेरे मुरझाए हुए पेड़ समरबार हुए
मैं समझता था बिछड़ जाना हदे आख़िर है,
फिर तेरी याद के आसेब नुमूदार हुए
दोस्त, दस्तक तो किवाड़ों पे सुनी जाती हैं,
और हमें एक सदी हो गयी दीवार हुए
वरना हम में भी ख़राबी की कोई बात न थी,
एक मगर तेरी तमन्ना के गुनहगार हुए
मौसम ए इश्क़ भी आया था ज़मीन ए दिल पर,
पर वही बात के बदलाव लगातार हुए
कितनी सस्सी हुईं, पुन्नू हुए, लेकिन कितने,
कच्चे मटकों के सहारे पे नदी पार हुए
हमने उस मरते हुए शख़्स में जाँ फूंकी थी,
पर मसीहाई के एवज़ में सरे दार हुए
फिर कोई छोड़ गया, मेरी सहूलत बढ़ गयी,
शेर कहने के नए ज़ाविये तैयार हुए
आसिम क़मर
खटीमा, उत्तराखंड
मोबाइल: 8279874248
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