शिक्षा : एम. ए. ,एम.एड. (हिन्दी साहित्य)
सम्प्रति : अध्यापन (बिहार सरकार)
प्रकाशन : प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लगातार कविताएँ प्रकाशित , महत्वपूर्ण ब्लॉग्स पर भी कविताएँ प्रकाशित।
कई भाषाओं में कविता का अनुवाद।
कविता संग्रह : मैं थिगली में लिपटी थेर हूॅं संभावना प्रकाशन हापुड़ से प्रकाशित हुई है।
■ कितना जानते हो तुम स्त्रियों को
कितना जानते हो तुम स्त्रियों को
हाँफते पसीने से तरबतर
जब तुम आसमान से उतरकर
पीठ-करवट चैन से सोते हो
स्त्री घुटने पर सर रख रात-रात भर रोती है
घुटन में नोचती है चमड़ी
खींचती है बाल
चरमराती है देह
सूखते हैं होंठ
उसी वक़्त खोल देती है
सड़क किनारे की ओर बंद पड़ी खिड़की
तमाम फसादों को चुन्नी में लपेटकर भागती है नई सड़क पर
चुन लेना चाहती है कोई नई माँद
याकि कोई नया प्रेमपात्र
जो देह से ज़्यादा मन पर चरस बोता है
बदन से छाल छिलवाती स्त्री खोजती है कोई मलहम
कोई ज़नाना मर्द
जो होंठ-गर्दन पर दाग़ से पहले
उगा दे तलवों पर सफ़ेद गुलबहार के फूल
खुशबू से महका दे बदन
ह्रदय की दीवार पर रख दे अपना हाथ
पलकों पर छोड़ दे कुछ स्वप्न
ज़िबह से पहले पिला दे घूंट भर पानी
चरमोत्कर्ष के वक़्त तक छोड़े ना उसका केश
शिथिलता की अवस्था में छाती से लगा चूम ले माथा
और धीरे से पूछे ज़ियारत (तीर्थयात्रा) उसकी
कितना जानते हो तुम स्त्रियों को
इतिहास में स्त्रियों को जितना लिखा गया उसमें आधा झूठ था
नाफ़रमानी स्त्री छुपाती रहीं नाभि में रहस्य
नापती रहीं हाथ के बित्ते से निगेटिव रील
36-26-36 के क्रूर आंकड़े में फंसी स्त्री
कठुवाई रही
अब जब स्त्री काठ से मांस-मज्जा में परिवर्तित हुई है
मांगती है हिसाब
करती है सवाल
तब तुम ग्रीवा में दर्द महसूसते हो
हमें खेद है।।
■ जब ज़रूरी था बोलना
जब ज़रूरी था बोलना
हम तल्लीन थे कई दूसरे कामों में
हमने कभी जरूरी नहीं समझा बोलना
चुप्पी को हम ख़ाला का घर समझते रहे
बोलना जरूरी था तब भी
जब हम चुप थे
बोलना ज़रूरी है अब भी
जब हम चुप हैं
यह भी दौर है
जब ज़रूरी है बोलना
हम साम-दाम-दंड-भेद से शांत रहने के नुस्ख़े ईज़ाद किए जा रहे हैं
जिस दिन हम सीख जाएंगे
घर से लेकर बाहर तक बोलना
एक नई दुनिया उसी दिन स्थापित होगी।।
■ बम के गिर्द लिपटा मुलायम रिबन
स्त्री की चाहनाएं
मृत देह पर भिनभिनाती मक्खियों सी थी
जिन्हें बार-बार
किसी फटे पुराने गमछे से उड़ा दिया जाता
वे बार-बार बैठने की कोशिश करतीं
बार-बार स्त्री उन्हें उड़ाने की कोशिश करती
इस कोशिशों में गहन चुप्पी थी
अंतस की आंधी का पता तब चला जब आधी रात स्त्री जागती
उसी वक़्त स्त्री जीती थी अपने अंदर की आग
गहन भ्रामक रहा वह रास्ता
जिस पर चलकर मूक बनी स्त्री
कानों से सुनते हुए भी वह बधिर थी
उसका बोलना गौरैया के ची जितना था
कनेर के बागों में मन का कोना सहलाती
खोंस आती वहां मन के उभरे तंतु
कुमार्गी होने से सहज था
चुपचाप सह जाना
श्वास के रोकने जितना बेढ़ब था
अनचाहे रिश्ते को दो टांगों के बीच ज़गह देना
जलकुंभी सा देह को कुंभलाती रही
ग्रास बनती रही देह अपनी ही देह की
गाँठें और गहरी हुईं
बम बारूद के बीच बीच सेल्फ पाॅटरेट बनाती रहीं
कूल्हे और जांघों पर नीले निशान के बावजूद उगाती रहीं चांद पर सेमल के फूल
स्त्री अपार सौंदर्य का एक धड़कता हुआ जिंदा प्रतीक है
आंदरे ब्रेतों ने यूं ही फ़ीदा काहलो(स्त्री) को बम के गिर्द लिपटा मुलायम रिबन नहीं कहा था।।
आंदरे ब्रेतों ने यूं ही फ़ीदा काहलो(स्त्री) को बम के गिर्द लिपटा मुलायम रिबन नहीं कहा था।।
उनके लौट आने का इंतज़ार किसी ने नहीं किया
दो कप चाय बनाकर
आमने-सामने की कुर्सी पर बैठकर
बारी-बारी से सुड़कती
अहमद फ़राज़ को पढ़ती
आबिदा परवीन को सुनती
देर रात
उदास बिस्तर पर दोनों पैरों को सीने तक सिकोड़कर सोतीं
उन औरतों को लोग कौतुक से देखते
उन औरतों ने किसी को नहीं कोसा
ना ही बताई किसी को असल भूख (चाह)
उनका प्रेमी ख़ासा प्रसिद्ध था
वह उसकी नाभि पर फ़िदा था
नशे के चरम बिंदु पर
वह चीख़ते हुए कहता था- तुम बेहद अलग हो!
खंजर-सी उतर जाती हो भीतर
उन औरतों का भविष्य तय नहीं था
लड़ती खटती वे औरतें अमलतास हो गई थीं
उनके उदास मौसमों पर किसी ने नहीं लिखी कोई कविता
ना ही फ़रवरी माह में उनके गमले में उगा कोई गुलाब।।
■ नमकीन औरतें
औरतों को अपनी योग्यता सिद्ध करने के लिए गहन परीक्षणों से गुजरना पड़ा
औरतों ने अपनी योग्यता को सिद्ध करने का जरिया अपनी देह को बनाया
ऐसा कार्य स्थल पर बार-बार सुना गया
औरतों की तरक्की उसकी देह से होकर गुज़रती है
औरत का सुंदर होना
उसके आगे बढ़ने के औजार हैं
अपने हक़ के लिए बोलने वाली औरतों को चरित्रहीनता के पैमाने से देखा गया
औरतों को अपने हक़ की बात दबी ज़ुबान से बंद कमरों में करनी थी
खुलकर बोलने वाली औरतें हमेशा नागवार रहीं
उन्हें कई-कई परतों में बंद करने के हथकंडे अपनाए गए
घर की इज़्ज़त को औरतों के पल्लू से बांध कर देखा गया
सिर से पल्लू का सरकना पौरुषय इज़्ज़त के साथ खिलवाड़ था
बंद कमरों में खुलकर जीने वाली औरतें पति के लिए मसाला थीं
खुले दरवाज़ों पर उन्हें चुप रहने की सलाह दी जाती
गहनों से लदी औरत परंपरा थी
किताबों से संगत करती औरत परम्परा विरोधी थी/
खिलन्दर थी
इन खिलन्दर औरतों से
दूसरे घर के बुजुर्गों ने
अपनी बहु-बेटियों को हमेशा बचाया
दूर रहने की हिदायत दी
खिलन्दर औरतों के किए गए कार्य
उनकी रीढ़ से रिसता नमकीन जादू था
इन औरतों ने जब प्रेम किया तो उन्हें जादूगरनी कहा गया
इन औरतों ने बल्कि प्रेम नहीं किया
प्रेम में किसी को फांसा था
इन औरतों पर पहली अंगुली उठाने का तमगा औरतों को ही मिला
पुरुष चटखारे लेकर इन पर हाथ उठाते
इन औरतों को काबू में रखने की तरकीब सूझाते
सफल पुरुष वही रहा
जिनकी औरतें लगाम में रहीं
बे-लगाम औरतों के पुरुष को
प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा गया
औरतों के लिए नियम कौन तय करता रहा
यह किसी को नहीं पता था
इन नियमों को तोड़ने का पाप हमेशा औरत के सिर रहा
औरत घर की तरफ़ जाने का ठहराव है
यह बात दादी के मुंह से अक्सर सुनती
मेरे उग्र स्वभाव पर वह चिंतित रहती
परंतु मैं
दादी की इन बातों को कंठस्थ कभी नहीं कर पाई
औरतों का उग्र होना
उनके जीने का नमक है।।
■ कितना आसान है
युद्ध छेड़ देना
कितना मुश्किल है
छिड़े युद्ध को रोककर मनुष्यता बचा लेना
हर युद्ध के बाद अंतत: मनुष्यता हारती है।।
■ तुम बीत गए हो
याकि तुम्हारा बीत जाना बाक़ी है
विरक्त समय के दुपहिये पर सवार होकर आए थे
उदितयौवना- सा मन ओज से भर गया था
ओढ़ लिया था कज्जलित ओढ़ना
कथा आरंभ से पहले तुमने तय किया अंत
कटु स्वाद-सा जीभ पर आते ही ऑंख मूॅंदकर निगल लिए कसैले दिन
दूषित भोजन को पाया जैसे प्रसाद
तुम्हारे कठोर शब्दों को ऐसे ग्रहण किया
जैसे श्रद्धा भाव में लीन विद्यापति के पद
प्रेम की कीमत में
तुमने ठोक दी हृदय दीवार पर कील
जीवन से भरे दिन में तुमने
क़ब्र पर रख दिए कुछ सफ़ेद फूल
क़बूल के रस्म में
तुमने तोहफ़े में दिए कफ़न के वस्त्र
पकाए हुए माॅंस को तुमने छोड़ा
जैसे शिकार से अधमरा हिरण
अभागे तुम थे या वक्त
एक कवि या पाठक पढ़ते हुए इसे आह या वाह शब्द से नवाजेगा!
परंतु
जलाशय में खिला कमल
जो पीलिया रोग से पीड़ित है
मृत्यु चाहता है ।।
■ तुमने बचे रहने के कई जद्दोजहद बताए
ख़त्म हुए तो जीवन कहाॅं
बचे होने में ही जीवन है
अगर बचे रहे
तो बंद लिफ़ाफ़े में प्रेम भेजना
इन दिनों प्रेम का मर्तबान खाली पड़ा है।
■ परित्याग की स्थिति में
तुम्हारे आस-पास अनगिन लोगों का जमावड़ा था
तुम पलटने की स्थिति में भी टकरा सकते थे
दूर से आता कोई धुँधला चेहरा तुम्हें दिख भी जाता
कुछ करने की स्थिति से पहले वह ओझल था
ख़ैरियत कि तुम सलामत रहे
यहाँ की आबोहवा में दु:ख जकड़ा रहा
रात की बेचैनी की अवस्था उससे पूछो
जिसने अलस्सुबह से तुम्हारा इंतज़ार किया
और तुम आधी रात तक नहीं लौटे
भ्रम टूटने में वक़्त तो लगता है
इंतज़ार में सारे गुलाबों की सुगंध बासी हो चली थी
भोग के दिनों में तुमने मुझे भूखा रखा
फेंटे हुए अंडे का पकवान धीमी आँच पर पकाना चाहिए
तेज़ आँच पर जलने की बू आती है
किसी देश में आकर रुकने से
वह देश कब उसका हुआ है
शरणार्थी की तरह हम दु:ख के दिनों में आए
हमारे सोने का कमरा पानी से भरा था
और भोजन अधपका
रोज़नामचे में लिखा जाता रहा तुम्हारा पता
चाहा हुआ हथेली पर आता ही कब है
परित्याग की स्थिति में सोचती हूँ
कहीं पहाड़ पर जाऊँ
याकि लिख दूँ कोई उलटबाँसी कविता
जिसे अतृप्त रखा गया बारहों मास
वह प्रेम के चुंबन को क्या ही समझेगा
प्रेम में जब आत्मसम्मान की बलि देनी पड़े
तब
प्रेम वहीं स्थगित कर देना ।।
■ माॅं की दुनिया
माॅं ने एक संपूर्ण जीवन कभी नहीं जिया
माॅं का जीवन हमेशा खोखला ही रहा
माॅं खूब पढ़ना लिखना चाहती थी
परंतु
माॅं के पिता को नहीं पसंद था उनका पढ़ना लिखना
16 साल की उम्र में ब्याही गई थी माॅं
माॅं की कच्ची उम्र के बारे में ना तो किसी ने सोचा
ना ही उनसे सहमति ली गई
ससुराल में चार अनब्याही ननदें एक विधवा सास और एक छोटा देवर था
माॅं जो बहुत बड़े घर की बेटी थी
अचानक से एक झूलते हुए घर में आ गई
तब से आज तक बिना रुके घर की नींव को संभाले हुए है
कितना कठिन था
माॅं को यह समझना कि यही अब उसका घर है
यही लोग अब उनके अपने हैं
माॅं बचपन में ही बचपन भूल चुकी थी
माॅं बताती है- पिताजी ने उन्हें रेडियो दिया था
वह लगातार काम करते हुए विविध-भारती सुना करती
माॅं के एकांत का साथी वही रेडियो था
पिता शादी से पहले ही घर के अजन्मे पिता बन चुके थे
घर की जिम्मेदारियां का झोला आज तक उनके हाथ से नहीं छूटा
हालांकि माॅं की हड्डियों से अब चरमराने की आवाज़ें आती हैं
बीपी हाई लेवल पर है
और मधुमेह की गोलियां लेती है
दो बार अटैक आ चुका है बावजूद इसके माॅं सुबह 4:00 बजे बिस्तर से उठ जाती है
मेरे ज़हन को याद नहीं कि माॅं के लिए कोई रविवार सुनिश्चित था या है
माॅं नौकरी पर जाने से पहले पूरा घर समेत लेती है
लंच बॉक्स में नहीं डालना भूलती सलाद और कुछ फल
माॅं को ज्ञात है बीमार होने का दुःख
आदतन काम करते हुए माॅं ज़्यादा सुख भोगती है
माॅं ने जीवन में जो चाहा वह कभी नहीं मिला
अब माॅं चाहती है
उनका बचा हुआ जीवन बच्चों के साथ बीते
बच्चों के सुख में वह सुख ढूंढती है
कभी-कभी खीझकर माॅं चिल्ला देती है
माॅं चिल्लाते हुए अपनी ऑंखों में पानी छुपाए रहती है
माॅं ने कभी हार नहीं मानी
हर दुखों के पहाड़ को अपने कंधे पर उठाते हुए
यही कहती रही, एक दिन सब ठीक हो जाएगा
माॅं इन दिनों रेडियो की जगह मोबाइल पर भजन सुनती है
भजन सुनते हुए वह घर के काम को निपटाती रहती है
माॅं जानती है , इस बार अटैक आया तो वह नहीं बच पाएगी
कभी मुझे पापड़ बनाना सिखाती है
कभी अचार
कभी घर का मसाला
माॅं चाहती है , जब वह जाए तो घर में वही स्वाद बचा रहे
जो उन्हें उनकी माॅं से मिला
माॅं को अपनी माॅं का चेहरा याद है
कभी-कभी कहती है - नानी की तरह मुझे भी विदा करना
हर वह बात जो उनका अपना था
अब वह बताने लगी है।।
■ मेरे बच्चे
मेरे बच्चे
मैं ढूॅंढ रही हूॅं वह कोना
जहाॅं तुम्हें सुरक्षित कर सकूॅं
जहाॅं तुम्हें देखनी ना पड़े
ध्वस्त ज़मीनें
जहाॅं तुम्हें देखनी ना पड़े
वह टूटी इमारत
जिसे तुमने तुतलाकर कभी घर कहा था
माॅं के ठंडे पड़ चुके शरीर
जिसके आगोश में कभी गर्माहट महसूसते हुए
तुम सबसे ज़्यादा सुरक्षित महसूस करते थे
पिता की वह चुप्पी
जो तुम्हें लोरी सुना कर कभी सुलाया करती थी
तुम नींद में भी मिसाइल-बम-बारूद के डर से भाग रहे हो
ज़मीन की कई-कई परतों के नीचे समा गया तुम्हारा बचपन
तुमसे तुम्हारी सबसे सुरक्षित गोद छीन ली गई
वह मजबूत कंधा
खुद कंधे पर सवार होकर कोई दूर देश जा रहा है
तुम चिल्ला-चिल्ला कर अपने ही भाई-बहनों को ढूॅंढ रहे हो
तुम भूख में भी गोली खा रहे हो
तुम नींद में राख चबा रहे हो
मज़हब-ज़मीन-जंग में मनुष्यता की मृत्यु पर
तुम्हें भी बिना किसी गुनाह के यह सज़ा मिली है
तुम्हारे मन के भीतर रोप दिया गया आतंक
आतंकित मन लिए दिखावे की देह में
तुम जीना सामान्य जीवन
मेरे बच्चे!
आज मनुष्यता शर्मिंदा है
परंतु
कहीं तो कोई ज़मीन होगी
जहाॅं तुम सुरक्षित जी सको अपना जीवन
जहाॅं तुम भय और आतंक को कह सको अलविदा!
ज्योति रीता
8252613779
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