जन्मतिथि- 3 सितम्बर 1983
सम्प्रति – मैरीन इंजीनियर
साहित्य मे छात्र जीवन से रुचि। वागर्थ ,आजकल, परिन्दे, कादम्बिनी, कृति बहुमत, बहुमत, प्रेरणा अंशु, वनप्रिया, देशधारा आदि पत्रिकाओं मे रचनाएं प्रकाशित
पोषम पा, जानकीपुल, इन्द्रधनुष, अनुनाद, लिखो यहां वहां, मलोटा फोक्स, कथान्तर-अवान्तर, हमारा मोर्चा आदि साहित्यिक वेब साइट्स पर कविताएं तथा लेख प्रकाशित
प्लूटो तथा शतरूपा पत्रिकाओं मे बाल कहानियां प्रकाशित
नोशनप्रेस की कथाकार पुस्तक मे सन्दूक कहानी चयनित, एक अन्य कहानी गाथान्तर पत्रिका मे प्रकाशित
पोषम पा पर कुछ विश्व कविताओ के अनुवाद प्रकाशित
कृति बहुमत पत्रिका मे चेखव की एक कहानी का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित
कविताओं की किताब “समुद्रनामा” दिसम्बर 2022 मे प्रकाशित
अधूरापन
हम सब उस उदास टैडी की तरह हैं
जिसे हमेशा लगता रहता है
कि उसके भीतर
थोड़ी सी कम रह गई है
रूई ।
आदिमभाषा
बेहूदा बहसों के लिये
ढेरों मिल जाते हैं शब्द
कुछ अपनी
कुछ दूसरी भाषाओं से उधार लिए
कितने तो नये शब्द भी गढ़ लिए हमने
बहस को जारी रखने के लिये
जैसे आग हो बहस
और होम होती जाती हो भाषा
पर ठीक उस वक्त
जब कहे जाने की
सबसे ज्यादा होती है ज़रूरत
शब्द छोड़ देते हैं साथ
तब काम आती है
सिर्फ दो शब्दों की
संसार की सबसे आदिम भाषा
जिसका पहला शब्द है चीख
और अंतिम आंसू।
चौथ का चांद
वे इमारतें जो सबसे ऊंची और भव्य थीं
वहां सबसे पहले पहुंचा चौथ का चांद
जिनके पास थी बालकनी या चहल-कदमी वाली छत
फिर वहां उतरी उसकी छवि
ऊंचाई से गहराई की तरफ रहा
उसका दिखना
ओहदे के हिसाब से
भव्यता के घटते हुए क्रम में
बहुत से लोगों ने प्रतीक्षा की चांद की
बहुत सी स्त्रियां किवाड़ों पर देर तक
लगाये रहीं टक-टकी
सबसे आखिर मे देखा
उस स्त्री ने चांद
जिसका पति दिन भर के श्रम के बाद
सुनिश्चित कर के आया
कि परिवार में सबकी थाली मे हो
चांद के आकार सी रोटी ।
तुम्हारी और मेरी भाषा के भेद
मैं जब लाज कहती हूँ हौले से
तुम मूंछों पर बल देते हुए इज्जत पढ़ते हो
जो परंपरा मेरे लिये
तुलसी की पूजा होती है
वो तुम्हारे लिये
मेरे चेहरे का घूंघट हो जाती है
जो प्रेम मेरे लिये रिश्ते के बीज के
बोने, सींचने और पल्लवित होने तक अनन्त है
वही प्रेम तुम्हारे लिये सीमित हो जाता है
कमरे की चारदीवारी तक
पता नही कब और किसने दे दिये
हमें ये अलग-अलग शब्दकोश
जिस मे हर शब्द के दो अर्थ हैं
सिर्फ मेरा जिस्म छूकर नही
पुरुष, तुम तब तक नही समझ सकते मुझे
जब तक कठंस्थ नहीं कर लेते
मेरा शब्द कोश ।
वह एक लय के लिये लड़ा
वो समाज के सबसे निचले खांचे मे था
बैठना नसीब मे नही था उसके
उसका हाथ वाला रिक्शा इतना आदिम था
जिसने खुद उसके लिये नही बनायी कोई सीट
खींचने के लिये दो हत्थे थे बस
कई बार वो परिवार के लिये लड़ा
कई बार अधिकार के लिये
कई बार अत्याचार के खिलाफ
तो कई बार भ्रष्टाचार के
बाढ़ में
सरकार की तरफ से फेंके जा रहे
फूड पैकट लपकने मे तो महारत थी उसे
उसके लिये हर दिन एक आपदा था
जीवन भर इस लड़ाई इस चीख मे
उसका चिड़चिड़ा हो जाना स्वाभाविक था
भूख के प्रबन्ध के सिवा
कुछ नहीं था उसके पास
उसने कई बार बिना कुछ समझे
नारे लगाती भीड़ के साथ नारे लगाये
संगीत के नाम पर उस रिक्शे की खट-खट
और लोगों का शोर भर था उसके पास
किसी को नही पता
उसकी चिड़चिड़ाहट की असल वजह
उसकी दिनचर्या से गायब वह लय थी
जिसे जीवन कहा जाता
कई बार एकान्त में
वह ईश्वर से लड़ा
सिर्फ उस लय के लिये........।
नदी की चिंता मत करो
नदी की चिंता मत करो
नदी को मारा नहीं जा सकता
बना लो कितने भी बांध
उसे सदा के लिये बांधा नहीं जा सकता,
जहाँ कभी निर्बाध नदी थी
अब वहाँ सिर्फ नमी है
इसे नदी की मृत्यु मत समझना
नदी के लिये मत बहाना आंसू
नदी सदियों तक जीवित रह सकती है
रोक कर अपनी सांस
सदियों बाद ही सही
नदी में लौट आयेगा प्रवाह,
नदी की चिंता मत करो
चिंता करो अपनी
कि नदी के सांस रोक लेने के कितने साल बाद तक
चलती रह सकती है
मनुष्य की सांस !
नदी पार
चाहा और सोचा हुआ
सब है
नदी के उस पार
हमारे पास नाव नहीं है
नदी पर भी नहीं बंधा
कोई पुल
अपनी नस्ल की शुरुआत से ही
हम मानव
खाली कर रहे हैं नदी को
अपने-अपने पात्रों में भरकर।
आदमी और शहर
सबसे पहले शहर चुभता है
शहर गया हुआ नया नया आदमी
जब देखता है किसी मस्तिष्क का चित्र
तो उसे दिमाग की नसें नही
शहर की गलियां दिखती हैं
धीरे-धीरे लेता है शहर आदमी को अपनी जकड़ मे
घर-परिवार, गांव या सम्बन्ध नही
चौक-सड़कों और दुकानो के नाम रटता है
अकेले मे नया आदमी
शहर के पुराने आदमी से उसे
अपने नये होने को छुपाते हुए मिलना है
वह जानता है अजगर सी होती है
शहर की जकड़
मगर वह उसमे फंसना चुनता है
क्योंकि उसी अजगर की कुंडली के
सबसे भीतर रख दिया गया है
आदमी का भोजन
फिर एक दिन इतने अपृथक हो जाते हैं दोनो
कि आदमी से पूछे जाने पर उसका नाम
आदमी अपनी बेहोशी मे बोलता है
शहर का नाम.........।
योगेश कुमार ध्यानी
निवास – कानपुर
मोबाइल – 9336889840
इमेल – yogeshdhyani85@gmail.com
मार्मिक व्यंजनापूर्ण बहुत उम्दा कवितायें हैं। इन कविताओं में संवेदना की गहराई अन्तस्थल को छूती है।
ReplyDeleteयोगेश जी को बहुत बहुत बधाई।
सभी कविताएं अच्छी हैं। बधाई योगेश भाई।
ReplyDeleteकविताओं में उकेरी गई सुन्दर अभिव्यक्ति।
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