Friday, April 5, 2024

फ़िलहाल - 8 आरती


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हमें भेड़ - बकरी बनाओ ||

' हीं सीखना हमें दो और दो का जोड़ घटाना
नहीं पढ़ना विज्ञान भूगोल की पोथियां
इतिहास की मक्कारियां समझकर क्या कर लेंगे
और राजनीति तुम्हारी तुम्हें ही मुबारक

हम वही धान कूटेंगे
चक्की पीसेंगे
घूंघट काढ़कर मुँह अँधेरे दिशा फारिग हो लेंगे


हम हाथ जोड़कर सत्यनारायण की कथा सुनेंगे
और लीलावती कलावती की तरह परदेस
कमाने या ऐश करने गए सेठ का
जीवन भर इंतज़ार करेंगे .. '

हमारे समय की बेहतरीन कवि हैं 'आरती'। अनूठी, स्त्री - संवेदना की सच्ची कवि और समय की छाती पर लकीर खींचती हुई । रीवा ( म. प.) में जन्मी आरती ने 'समकालीन कविता में स्त्री - जीवन की विविध छवियां' विषय पर पीएचडी किया है। स्त्री मुद्दों पर निरन्तर लिखा है। प्रिंट व इलैक्ट्रोनिक मीडिया में सक्रिय रही हैं। 'मीडिया मीमांसा' 'मीडिया नवचिंतन' ( माखनलाल चतुर्वेदी विश्विद्यालय ) सहित रवींद्रनाथ टैगोर विश्विद्यालय द्वारा प्रकाशित कथाकोष 'कथादेश' का संपादन भी किया है। 'समय के साखी' की संपादक हैं । 'मायालोक से बाहर' के उपरांत दूसरा कविता - संग्रह 'मूक बिम्बों से बाहर' "राधाकृष्ण प्रकाशन" से पिछले दिनों ही आया है । इसी संग्रह के बहाने कुछ कहने जा रहा हूँ -

इस संग्रह का पहला ही पन्ना ध्यान खींचता है। इसे जनकवि रमाशंकर ' विद्रोही'  व कोविड में हताश, मौत की अचीन्ही नींद सो गए जन - समाज के नाम किया गया है। यह सामाजिक चेतना अचानक नहीं आती। इसके लिए द्वंद्वात्मक कारणों का विश्लेषण करना पड़ता है , जो उनकी कविताओं में बेबाकी से मुखर होता है ।

' ... राजा रानी अपनी बेटी को विदा करते हुए
बहुत सारा धन , घोड़े हाथी और हज़ारों दासियां भी देते हैं
मैं कहानी को थोड़ा रोककर पूछती हूं कि बताओ
ये हज़ारों  - लाखों दासियां कहां से आती थीं
क्या राजा के किसी खेत में उगाई जाती थीं .. ' 

आरती का शिल्प, यकसां इतिहास की उस सड़ांध को खोलता मिलता है, जहां स्त्री को देह मात्र मानकर रौंदा गया तथा दूसरी ओर वह इसे मर्मांतक कथा की तरह रचती हैं। वह स्त्री - देह की संवेदनाओं को उलीकती, तथाकथित स्त्री - विमर्श का भी अतिक्रमण कर जाती हैं। यहीं वह भाषा के उस आलोक का वरण करती हैं ,  जिसमें शब्द - संस्कार खुलकर बोलते हैं। मिथक, इतिहास व वर्तमान का ऐसा गुंफन अद्वितीय है, जो उन्हें हमारे समय की अधिकांश कवियों से अलगाता है।वह वाक्य - विन्यास के भीतर उस नैरेटिव को स्थापित करती हैं, जहां राजनैतिक - सामाजिक छद्म है। यह जितना आसान लगता है, उसे अर्जित करने में कवि की बहुत साधना होती है। यह तथ्य इस उदाहरण से स्पष्ट होगा : 

' एक चिड़िया भी इन दिनों उदास और चुपचाप ऊँघ रही है
एक गिलहरी बीमार -  सी पेड़ की डाल पर सोई है'

आरती की कविताओं के शीर्षक ही ज़बरदस्त हैं। जैसे : 'दासियां किस खेत में उगती थीं', 'तीर की नोक पर रखकर स्तन, एक स्त्री घोषणा करती है', 'नदी शाप देगी और तुम सबकुछ भूल जाओगे', 'वे सड़कें ज़रूर छटपटाती होंगी दर्द से', 'विधवा उत्सव मनातीं मेरे गांव की औरतें'। उनकी कविताओं पर ' राजेश जोशी ' लिखते हैं , "...आरती समय के अंतर्द्वंद्वों और अंतर्विरोधों को समझने - परखने के लिए, उसकी अनेक अंदरूनी परतों में झांकती है । इस समय को कहने के लिए वो मिथकों , स्मृतियों और आख्यान को मिथक की तरह या इतिहास की तरह नहीं , वर्तमान की तरह देखती हैं। ऐसा करते हुए वह बार - बार मिथक और इतिहास के संदर्भों से बाहर अपने समय की सच्चाई से रूबरू होने की जद्दोजहद से गुजरती हैं । इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए इस द्वैत और द्वंद्व को लगातार महसूस किया जा सकता है।" 

आरती कई बार स्वयं को ही रचती हुई महसूस होती हैं। ये कविताएं हालांकि उन्होंने एक बड़े समाज को चिन्हित करते हुए लिखीं हैं, लेकिन  बहुधा यह भी लगता है कि ये उनकी निजी डायरी की तरह हैं। इसमें भी कतई संदेह नहीं कि वे बहुत गहरा उतर कर औरत व आदमी के द्वंद्व को मथती हैं। यहां आवर्तन है, जिसे मुहावरे की तरह स्थापित किया गया है। '... आदमी का विलोम जानवर होता है / ... जिसके तहत औरतें 'आदमी' नहीं होतीं...।' यहीं इसे भी रेखांकित करना बनता है कि वे, महज़ स्त्री - मुक्ति की नहीं, स्त्री के हक में अलख जगाने वाले कवि भी हैं।

' सिंधु घाटी के खंडहरों में भटकती
चौदह सीढियां जल्दी - जल्दी फलांग
मैंने तुम्हें आवाज़ दी
कि सुनो ! ऐसे अकेले नहीं पर की जातीं सभ्यताएं ...
कि नदी शाप देगी और तुम सब भूल जाओगे ।'


प्रेम की जागृति , सभ्यता के चरण  व प्रकृति का मिलाप उनकी कविताओं में मिलता है। इस बात को कविता 'धूसर कागज़ पर लिखा प्रेम' में निकट से समझा जा सकता है। इन कविताओं में प्रेम की पराकाष्ठा तो है ही, स्त्री - मन के संघर्ष साथ चलते हैं। यही इन कविताओं की मौलिकता है और सीमा भी। इसी के साथ ये कविताएं हमें प्रकृति के निकट जाने की तमीज बख़्शती हैं। आरती कुदरत को खोलती ही नहीं, इन्हें हमारे सामने इनके असंख्य मायनों संग रख देती हैं। वे रंगों की चितेरी हैं, तो रँगों में व्याप्त प्यास की भी कवि हैं। उनके पास यदि मिथक और इतिहास बार -  बार लौटता है तो समय का मौजूदा संश्लेषण भी उपस्थित रहता है।

कोरोना - काल को लेकर उनकी कविता, 'मौत और महामारी की कविताएं' भी ज़रूरी कविता है। दोहराता हूँ कि आरती एक सशक्त कवि हैं। उनकी संवेदना विचलित करती है, लेकिन उन्हें विषय - विशेष की निरंतरता को लेकर सोचना होगा तथा कुछ और तर्ज़ की कविताओं को भी लिखना - परखना होगा। बहरहाल यह संग्रह हमारा ऐसे संघर्ष से सामना कराता है, जो चिरकाल से चलता हुआ स्थायी आकार ले चुका है। यहां जीवन के मायने उजागर होते हैं। उन्हें हार्दिक बधाई। अंत में उनकी लंबी कविता  'विधवा उत्सव मनातीं मेरे गांव की औरतें' से कुछ पंक्तियां :

' स तरह मेरे गांव कस्बे की औरतें 
किसी औरत के विधवा होने का जश्न मनाती हैं
वे पहले उसे नोचती हैं
फिर उसके घावों को कुरेदती हैं 
उसमें चुटकी भर - भर नमक डालती जाती हैं
तब तक , जब तक वह दर्द की अभ्यस्त होकर
औरों को दर्द देने की प्रक्रिया में शामिल न हो जाए ...'


(प्रकाशक : राधाकृष्ण ,दिल्ली , मूल्य : रू 199/-) 

ई - मेल  : samay sakhi@ gmail. com.



मनोज शर्मा

संपर्क: 7889474880


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