प्रकाशित पुस्तकें
■ क्या तुम्हें याद कुछ नहीं आता (ग़ज़ल संग्रह- 2021)
■ परफ़्यूम (नज़्म संग्रह-2022)
■ दस्तक (साझा ग़ज़ल संग्रह-2014)
■ गुलदस्ता-ए-ग़ज़ल (साझा ग़ज़ल संग्रह- 2023)
■चाँद बैठा हुआ है पहलू में (ग़ज़ल संग्रह-2024)
■ कविताकोश नवलेखन पुरस्कार(2011)
■ ग़ज़ल
माना मुझको दार पे लाया जा सकता है
लेकिन मुर्दा शहर जगाया जा सकता है
लिखा है तारीख के सफ़्हे - सफ़्हे पर ये
शाहों को भी दास बनाया जा सकता है
चांद जो रूठा रातें काली हो सकती हैं
सूरज रूठ गया तो साया जा सकता है
शायद अगली इक कोशिश तकदीर बदल दे
जहर तो जब जी चाहें खाया जा सकता है
कब तक धोखा दे सकते हैं आईने को
कब तक चेहरे को चमकाया जा सकता है
पाप सभी कुटिया के भीतर हो सकते हैं
हुज़रे के अंदर सब खाया जा सकता है
■ ग़ज़ल
दरो दीवार रोशन है दरीचा मुस्कुराता है
अगर मौजूद हो मां घर में क्या-क्या मुस्कुराता है
किया नाराज मां को और बच्चा हंस के यह बोला
कि यह मां है मियां इसका तो गुस्सा मुस्कुराता है
हमारी मां ने सर पर हाथ रखकर हमसे यह पूछा
कि किस गुड़िया की चाहत में यह गुड्डा मुस्कुराता है
सभी रिश्ते यहां बर्बाद है मतलब परस्ती से
अजल से फिर भी मां बेटे का रिश्ता मुस्कुराता है
फरिश्तों ने कहा 'आम आमाल का संदूक क्या खोलें'
दुआ लाया है मां की इसका बक्सा मुस्कुराता है
लगाया था किसी ने आंख से काजल छुटा कर जो
मेरे बचपन के अल्बम में वो टीका मुस्कुराता है
दिया था हामिद ने कभी लाकर जो मेले से
अमीना की रसोई में वह चिमटा मुस्कुराता है
किताबों से निकलकर तितलियां गजलें सुनाती हैं
टिफिन रखती है मेरी मां तो बसता मुस्कुराता है
वो उजला हो की मैला हो या महंगा हो कि सस्ता हो
यह मां का सर है इस पर हर दुपट्टा मुस्कुराता है
■ ग़ज़ल
इश्क़ मेरी ज़ुबान से निकला
और मैं ख़ानदान से निकला
सब मुहाफ़िज़ जहां पे बैठे थे
भेड़िया उस मचान से निकला
मैंने ठोकर ज़मीं पे मारी तो
रास्ता आसमान से निकला
क़त्ल जब कर गए उसे क़ातिल
हर कोई तब मकान से निकला
लोग तकते रहे समंदर को
और भँवर बादबान से निकला
रूप इक अनछुआ सा ग़ज़लों का
आज मेरे बयान से निकला
■ ग़ज़ल
चाँद पर माना महल सपनों के वो बनवाएगा
जंगली-पन आदमी पर साथ लेकर जाएगा
तोड़ देगा जब तरक़्क़ी की कभी सारी हदें
आदमी तब अपनी हर ईजाद से घबराएगा
दश्त में तब्दील हो जाएँगे ज़िन्दा शहर सब
बम तरक़्क़ी का ये इक दिन देखना फट जाएगा
मुँह के बल इक दिन गिरेगी देखना कुल काएनात
तेज़-रफ़्तारी में इन्साँ ऐसी ठोकर खाएगा
ग़र्क़ कर देगी हमें इक रोज़ तहज़ीब-ए-जदीद
आदमी ही आदमी को मारकर खा जाएगा
■ ग़ज़ल
मेरा इल्म, सुख और हुनर खा लिया
मुहब्बत ने तो मेरा घर खा लिया
नहीं खाएगी ज़हर वैसे तो वो
मगर दोस्त उसने अगर खा लिया?
समन्दर के तो होश ही उड़ गए
सफ़ीनों ने अब के भंवर खा लिया
क़ज़ा एक दो शख़्स खाती थी रोज़
सियासत ने पूरा नगर खा लिया
ये दुख खा गया है ज़मींदार को
कि बच्चों ने सब बेच कर खा लिया
नहीं...शाइरी का नहीं खाते हम
हमें शाइरी ने मगर खा लिया
बुरी ये ख़बर कोई ज़ालिम को दे
तेरे ज़ुल्म ने सबका डर खा लिया
नहीं...आप माहिर नहीं हैं हुज़ूर
ये धोका तो बस जानकर खा लिया
तुझे कुछ ख़बर है तेरे दुख ने दोस्त
मेरा ज़हन, दिल और जिगर खा लिया
बहुत सख़्त थी इस ग़ज़ल की ज़मीन
मेरा इस ग़ज़ल ने तो सर खा लिया
ये सुनने को हम तो तरस ही गए
'सिराज' आपने क्या डिनर खा लिया
■ ग़ज़ल
मसाइल का कोई हल भी नहीं है
कोई देने को संबल भी नहीं है
कहीं क़ालीन राहों में बिछे हैं
कहीं पैरों में चप्पल भी नहीं है
अभी कैसे बता दें बात दिल की
अभी मिलना मुसलसल भी नहीं है
जियोगे शहरे अय्यारी में कैसे
कि तुम में तो कपट-छल भी नहीं है
कहीं गर्दन झुकी है ज़ेवरों से
कहीं किस्मत में काजल भी नहीं है
कभी जी भर के उसको देख ही लूँ
मेरी किस्मत में वो पल भी नहीं है
उसे सोने के गहने चाहिए थे
हमारे पास पीतल भी नहीं है
तसव्वुर है फ़क़त बाहों में बाहें
अभी हाथों में आंचल भी नहीं है
जहाँ लटकी है शीतल जल की तख़्ती
वहाँ पर अस्ल में जल भी नहीं है
■ ग़ज़ल
ख़ुशी के कितने हैं सामान ख़ुश नहीं हूँ मैं
तेरे बग़ैर मेरी जान... ख़ुश नहीं हूँ मैं
है ज़हन-ओ-दिल में घमासान ख़ुश नहीं हूँ मैं
फ़रेब है मेरी मुस्कान ख़ुश नहीं हूँ मैं
ख़फ़ा न हो कि फ़रामोश कर दिया है तुझे
कहाँ है अपना भी अब ध्यान ख़ुश नहीं हूँ मैं
हूँ डूबती हुई कश्ती किनारा कर मुझसे
क़सम ख़ुदा की मेरी मान ख़ुश नहीं हूँ मैं
अदब, सिनेमा, समंदर, शराब, लड़की, फूल
ख़ुशी के कितने हैं इम्कान... ख़ुश नहीं हूँ मैं
चमकते शहर, हसीं बीच, मय-कदे, बाज़ार
मेरे लिए हैं बयाबान ख़ुश नहीं हूँ मैं
कई अज़ीज़ गंवा-कर ये ताज पाया है
सो फ़त्ह कर के भी मैदान ख़ुश नहीं हूँ मैं
■ ग़ज़ल
वो बड़े बनते हैं अपने नाम से
हम बड़े बनते है अपने काम से
वो कभी आग़ाज़ कर सकते नहीं
ख़ौफ़ लगता है जिन्हें अंजाम से
इक नज़र महफ़िल में देखा था जिसे
हम तो खोए है उसी में शाम से
दोस्ती, चाहत वफ़ा इस दौर में
काम रख ऐ दोस्त अपने काम से
जिन से कोई वास्ता तक है नहीं
क्यूँ वो जलते है हमारे नाम से
उस के दिल की आग ठंडी पड़ गई
मुझ को शोहरत मिल गई इल्ज़ाम से
महफ़िलों में ज़िक्र मत करना मेरा
आग लग जाती है मेरे नाम से
■ ग़ज़ल
तेरे एहसास में डूबा हुआ मैं
कभी सहरा कभी दरिया हुआ मैं
तेरी नज़रें टिकी थीं आसमाँ पर
तेरे दामन से था लिपटा हुआ मैं
खुली आँखों से भी सोया हूँ अक्सर
तुम्हारा रास्ता तकता हुआ मैं
ख़ुदा जाने के दलदल में ग़मों के
कहाँ तक जाऊँगा धँसता हुआ मैं
बहुत पुर-ख़ार थी राह-ए-मोहब्बत
चला आया मगर हँसता हुआ मैं
कई दिन बाद उस ने गुफ़्तुगू की
कई दिन बाद फिर अच्छा हुआ मैं
सिराज फ़ैसल ख़ान
शाहजहाँपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल: 7668666278
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