Sunday, June 21, 2020

रजत कृष्ण


निवासी: बागबाहरा, छत्तीसगढ़
संपादक: सर्वनाम पत्रिका
संप्रति: सहायक प्राध्यापक (हिंदी)
मोबाइल: 9755392532
विगत 30 वर्षों से साहित्य में सक्रिय। सभी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में 
रचनाओं का प्रकाशन।

रजत जी से मेरा परिचय पीयूष जी के माध्‍यम से हुआ था। कोई पांच साल पहले रजत जी के बारे में पीयूष जी ने फोन पर ही विस्‍तार से बातचीत के दौरान बताया था। तमाम चुनौतियों को दरकिनार कर किस प्रकार से अपनी शर्तों पर विजेता के रूप में जीवन जिया जाता है, रजत जी उसी की मिसाल हैं। रजत जी हमेशा प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। हमेशा हाशिए पर खड़े व्‍यक्ति का साथ देने वाले रजत जी का व्‍यक्तित्‍व कमाल का है। हार्दिक शुभकामनाओं के साथ ‘खुलते किबाड़’ पर पहली बार सहर्ष प्रस्तुत हैं उनकी कुछ रचनाएं।


युद्ध की बात करने से पहले 

युद्ध की बात करने से पहले 
परिंदों के पंख में पलते 
उजले -धुले , नीले 
आसमान को देखो !
देखो -
पेड़ों के तन-मन में 
लहराते हरियर समुद्र को !!

युद्ध की बात करने से पहले 
बादलों को पुकारती 
खेतों की उर्वर मिट्टी को देखो !
देखो -
धान की बाली में 
मोतियों -सी चमकती 
ओस की बूंदों को !!

युद्ध की बात करने से पहले 
गमला गढ़ते 
कुम्हार के चेहरे में खिले 
फूल को देखो !
देखो -
पालना बनाते बढ़ई की 
आँखों में खेलते 
शिशु की अठखेलियों को 

युद्ध की बात करने से पहले 
पतंग उड़ाते , बाँटी खेलते 
बच्चों की हथेलियों में धड़कते 
आसमान और मैदान के 
विस्तार को देखो !
देखो -
रंगोली पारती 
व्रत -उपवास रखतीं 
बहनों के सपनों में झिलमिलाते 
दूधिया संसार को !!

युद्ध की बात करने से पहले 
डायरी के पन्नों में दर्ज 
अपने मित्रों, परिजनों की 
जन्म तारीखों को देखो ! 
देखो-
उम्र की गुलाबी किताब में 
बड़े जतन से छुपा रखे 
प्रेम पत्रों को !!

युद्ध की बात करने से पहले 
देख सको तो 
युद्धों में मिली 
बैसाखियों को देखो !
देखो -
युगों -युगों से भिन्ज कर भारी हो रहे 
आँचल , चुनरी और दुपट्टे को !


अगरबत्ती से बातचीत 

देह जलाती 
खुशबू फैलाती 
आस्था की ओ ध्वज वाहिका 
कहो आखिर तुम क्या पाती ?

पाने -खोने के गणित में 
मैं कभी उलझती 
न सोचती ,
महकना मेरे जीवन का सार 
कर्तव्य हर संभव पूरा करती !

ईश्वर से 
कभी मिलती भी हो ...
सम्मुख उनके 
बातें भक्तों की एकाध रखती हो ?

कविवर !
ईश पहुँच का मारग कठिन बहुत 
अति लंबा ...
उस पर बाट छेंके बैठे होते 
सिद्धहस्त पुजारी 
नामवर पण्डे !

हाँ ,
पहुँच सकी कभी
फलाँग उनके जाल और फंदे सभी 
पूछुंगी यह बातें जरूर तब ...
कि मौन सदा 
क्यों रहते हो प्रभुवर ,
सुनाओगे फैसला कब आखिरकर
हम श्यामवर्णी क्षीण देही के
जनक जनों की
सदियों से लंबित मुक्ति याचिका पर !
      

उम्मीद के दीये

उठो ! जागो !!
ओ उम्मीद के बुझे हुए दीये 
सहेजो फिर से जीवन की बाती !
सिरजो सपनों का तेल 
जोड़ते हुए तिल-तिल !!

देखो ऑंखें खोल फिर से 
जिंदगी के उन अहातों 
और गलियों को
जहाँ पदचिन्ह छुटे हैं 
उजास जीवी हमारे पुरखों के !

इस बड़ी सी दुनिया में 
कमी कब रही भला 
उन हथेलियों की 
जो अपने संगे संग 
औरों के अँगना-दुआर खातिर 
सिरजा करते हैं 
स्नेह के दीये ,सपनों  की बाती !

बखत की कड़ी मार से 
लाख करिया जाए ज़िंदगी
चाहे ग्रस ले बिपत का अमावस कोई भी
उम्मीद की किरणों को ,
बाँचना माटी के नन्हें से दीये का जीवन तुम 
कि कैसे एक अकेला ही 
चीरता आ रहा है वह सदियों से 
अँधेरे की हरेक चट्टानी छाती !

उठो ! जागो !!
ओ उम्मीद के बुझे हुए दीये 
सहेज लो फिर से 
जीवन की बिखरी हुई हरेक बाती !!!
       

तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना

बुझे मुर्झाए
मेरी हँसी के पेड़ में
टिमटिमा उठी हैं
जो पत्तियाँ आज
उनकी जड़ें
तुम्हारे सीने में टहल रही
मेरे नाम की
मिट्टी-पानी में है ।

मेरी आँखों के
डूबते आकाश में
गुनगुनाने लगी हैं
जो तितलियाँ
उनकी साँसें
तुम्हारी हथेलियों में
बह रही
मेरे हिस्से की हवा में है ।

ओ जलधार मेरी !
हार-हताशा
टूटन और तड़कन के
बीहड़ में बिलमे
जो मुकाम और रास्ते
खटखटा रहे हैं कुण्डियाँ
मेरे पाँवों की
मेरी खातिर बुनी हुई
वह तुम्हारी प्रार्थना है ।


आग

आग से हमारा रिश्ता
उतना ही जीवन्त
और गहरा है
जितना कि पेड़ पवन और पानी से

पेड़ पवन और पानी की तरह
आग भी देवता होता है
यह बताते हुए
चेताती रहतीं हैं दादी नानी
आग चूल्हे की
कभी बुझे नहीं
ख्याल रखना आग बुझे नहीं
किसी भी सीने की ।

आग के महाकुण्ड में
पककर ही
नारंगी की तरह
गोल सुन्दर हुई है
हमारी धरती ।

आग में तप कर ही
खरा होता है
हमारी ज़िन्दगी का सोना
असल रूप धरता है
क़िस्मत का लोहा ।

आग से
हमने पानी को उबकाया
तो दुनिया की पटरी पर
दौड़ी पहली रेल गाड़ी ।

कुम्हार के आँवे को सुलगाया
तो हमें
पकी हण्डी, मटकी
और सुराही मिली,
मिले ईंट खपरे
खिलौने और गमले ।

गृहणी के हाथ में
आग जब पहुँची
हमने अन्न की मिठास को
भरपूर जाना....!

गोरसी में
शिशु देह की सेंकाई के लिए
जब सिपची वह
हमने माँ के गर्भ की
दहक के मर्म को पहचाना ।

आग की जोड़ का सम्वेदनशील
दुनिया में कौन होगा
जो बुझने के बाद भी
राख के ढेर में
धड़कती रहती है ।
एक ही फूँक से
जो दहक उठती है ।

तब आग की
एक लपट ही बहुत होती है
जब शासक की धमनियों में
पसर जाता है ठण्डापन
जुड़ा जाते हैं विचार 
        

प्रस्तुति व फोटोग्राफ: कुमार कृष्ण  शर्मा

1 comment:

  1. बहुत अच्छी कविताएं आपने आज लगाई हैं रजत कृष्ण की। युद्ध की बात करने से पहले... अशांत होती जाती दुनिया मे एक अनिवार्य कविता है। यह हर जगह पढ़ी जानी चाहिए। अगरबत्ती से बातचीत... कविता में ईश्वर के साथ अगरबत्ती को प्रतीक बनाकर बिल्कुल नया तरीका प्रस्तुत किया गया है। दीये... में रजत कृष्ण की अपनी अर्जित ऊर्जा का प्रकाश साफ देखा जा सकता है। यह कठिन समय की कठिनाई से उबारनेवाली कविता है निश्चित ही।
    तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना .. में प्रेम जिसने बल दिया, उसका सम्मान देखते हैं। प्रेम में सम्मान कम ही देखने आता है। आग... कविता अपनी समाप्ति के साथ करारी चोट करती है। उम्दा कविताएं रजत कृष्ण की।

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