Sunday, June 28, 2020

‘मुझे आई. डी. कार्ड दिलाओ’ से चुनिंदा कविताएं

2018 में कमल जीत चौधरी के संपादन में जम्मू-कश्मीर की कविताई को रेखांकित करता एक महत्त्वपूर्ण कविता संग्रह मुझे आई. डी. कार्ड दिलाओशीर्षक से रश्मि प्रकाशन लखनऊ से प्रकाशित हुआ था। मेरा मानना है कि हिन्दी में बरसों बाद ही कोई ऐसा सार्थक व सुन्दर कार्य होता है। इसका मूल्यांकन होना चाहिए।

किताब में 15 कवियों की 66 कविताएं हैं। ऐसा पहली बार हुआ है कि  महाराज कृष्ण संतोषी,  मनोज शर्मा, अग्निशेखर, योगिता यादव, निदा नवाज़, कुंवर शक्ति सिंह, शेख मोहम्‍मद कल्‍याण सहित अन्‍य कवि एक साथ एक किताब में प्रकाशित हुए हों। यह कविताएं व संपादकीय रूप में लिखा गया आलेख हिन्दी कविता को विस्तार देते हैं, एक नयी दुनिया खोलते हैं। रश्मि प्रकशन और कमल जीत को इस कार्य के लिए सलाम। 

आज इस संग्रह से सभी कवियों की एक-एक कविता और संपादक द्वारा लिखित भूमिका किताब के बारे मेंयहाँ लगा रहा हूँ। उम्मीद है कि इन्हें पढ़कर आप इस किताब तक ज़रूर पहुँचेंगे।

 

किताब की भूमिका 

कविता का एक अच्छा पाठक हूँ। पाठक की ताकत जानता हूँ। वह किताब के बाहर भी सार्थक हस्तक्षेप करता है। अपना एक पक्ष रखता और चुनता है। पाठक के भरोसे इस किताब को संपादित करने का साहस जुटा सका हूँ।

हिन्दी में यह विशेषांक युग है। साहित्यिक पत्रिकाएँ धड़ाधड़ विशेषांक निकाल रही हैं। ज़्यादातर की सीमा सिर्फ चार पाँच राज्यों और अपनी अपनी - दिल्ली तक है। हिन्दीतर भाषी राज्यों के लेखक और उसमें भी जो हाशिए पर लिख रहे हैं, उन्हें एक साथ छापने का नैतिक प्रयास कोई संपादक नहीं कर रहा। लगभग दो साल पहले हरे जी से इस विषय को लेकर बात हुई। उन्होंने 'मंतव्य' में जम्मू-कश्मीर की प्रतिनिधि कविता को सामने लाने की बात कही। मुझे इस पर काम करने के लिए बोला। मैंने चार महीने में यह कार्य पूरा करके उन्हें सौंप दिया। मगर 'मंतव्य' में स्थान पाने के लिए लम्बा इंतज़ार करना पड़ता। दरअसल 'मंतव्य' अपनी कुछ पूर्व योजनाओं को संपादित करने के बाद मेरे कार्य को स्थान दे पाता। इस बीच हरे जी ने 'रश्मि प्रकाशन' से इस कार्य को किताब रूप में लाने का प्रस्ताव रखा। जिसे साथी कवियों ने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया।

1990 के बाद की हिन्दी कविता में जम्मू कश्मीर का एक महत्वपूर्ण अवदान है। इस समय विस्थापित कवियों ने मर्मान्तक पीढ़ा भोगकर हिन्दी को विस्थापन की कविताएँ दी। यह आलोचना और साहित्य इतिहासों में दर्ज होना चाहिए। विस्थापन के समानांतर जम्मू में जो अन्य प्रवृत्तियों को लेकर कविता रची गयी; खासकर सन 2000 ई० के बाद, वह खास रेखांकित करने योग्य है। उस पर बात होनी चाहिए। यह मौलिक और ताजा है। प्रेम और प्रतिरोध से उपजी है। इसमें विविध सरोकार हैं। यह जितनी स्थानीयता रखती है उतनी ही ग्लोबल भी है इसकी सीमाएँ भी हैं और यह सीमाओं का अतिक्रमण भी करती है। इन प्रवृत्तियों को आधार बनाकर मैंने 2016 में एक आलेख लिखा था। जिसे जम्मू-कश्मीर कला अकादमी के एक कार्यक्रम में पढ़ा। सुनकर कुछ लोग काफी नाराज़ हुए थे। वह आलेख अनुनाद और शीराज़ा में छपा। उस आलेख को इस संग्रह में दे रहा हूँ। इसे इन कविताओं के साथ पढ़कर जम्मू-कश्मीर की कविताई की। नयी तस्वीर बनेगी।

मेरा इतना भर प्रयास है कि राज्य में नयी सदी की शुरुआत से लिखी जा रही कविता की ओर ध्यान दिया जाए। इस दौर के लेखन को समूह और समग्रता में पढ़ा जाए। जिन्हें लिखते हुए दस साल हो गए, जिन्हें लिखते हुए बीस साल हो गए, जिनका एक संग्रह शाया हुआ, जिनका एक भी संग्रह नहीं आया, जो दो-चार पत्रिकाओं में छपे, जो कहीं भी नहीं छपे, हो सकता है आने वाले सालों में इनमें से दो-तीन कवि हिन्दी में एक पहचान बना लें। वे अब तक जो भी अच्छा लिख सके हैं फिलहाल उस पर कुछ बात चले।

संकलन में चयनित सभी कवियों का आभार व्यक्त करता हूँ। इनमें तीन चार को छोड़कर अन्य मेरे अग्रज हैं। जिनके विनम्र सहयोग के बिना यह संकलन इस रूप में नहीं आ पाता। हरे भाई और 'रश्मि प्रकाशन' का भी धन्यवाद करता हूँ।

यह खूब पढ़ी जाएगी। एक उम्मीद और अपार खुशी से किताब आपके हाथ में सौंपता हूँ ...

-कमल जीत चौधरी



मिट्टी के हिरण    

(महाराज कृष्ण संतोषी)

हमें नहीं कोई डर

सामने शेर भी हो अगर

हम सजावट हेतु रखे गए

मिट्टी के हिरण

 

हमें न भूख लगती है

न प्यास

 

हम ने सुना है

जंगल के बारे में

कहते हैं वहां

हरी हरी घास होती है

पेड़ होते हैं अनगिनत

बेपरवाह घूमते हुए पशु होते हैं

और चहकते हुए परिंदे

 

हम मगर दिनभर

आदमी की पनाह में रहते हुए

इतने सभ्य हो गए हैं

कि जब टेलिविजन पर

किसी शेर को दहाड़ते हुए सुनते हैं

तो अभिवादन में कहने लगते हैं

सलाम हमारे शिकारी दोस्त

 

हमारे इस अभिवादन का

उत्तर दिए बिना

जब शेर कहीं गायब हो जाता है

तो ज़रा भी बुरा नहीं मानते

और पुन:

सच से घबराए हुए

आदमियों की चख चख

सुनने लगते हैं

 

हम मिट्टी के हिरण

न सत्य से

हमारा कोई बास्ता

न झूठ से

 

हम तो बस

आदमी के सौन्दर्यबोध का प्रतीक

और किसी दिन

शेल्फ से उतर जाएँगे

 

ज़रूरी नहीं

हमारी जगह

कोई दूसरा हिरण ही आ जाए

 

हो सकता है इस बार

कोई भूसा भरा हुआ शेर

आदमी के सौन्दर्यबोध का

शिकार बन जाए।



मुझे आई० डी० कार्ड दिलाओ    

(कुमार कृष्ण शर्मा)


शहर सुनसान है

हर तरफ पसरा सन्नाटा

शहर के मुख्य चोराहे पर घायल पड़ा व्यक्ति

दर्द से चिल्ला उठा

मेरी मदद करो ...

मुझे पहचानो

प्लीज हेल्प मी

क्यों कोई नहीं सुन रहा

अरे मैं हूँ धरती का स्वर्ग

डोगरों का शौर्य

और लद्दाख का शांति स्वरूप

लेकिन अब मुझे कोई नहीं पहचान रहा

हर कोई मेरे ही घर में

मेरा आईडी कार्ड मांग रहा है।

घायल हाथों से माथे का खून पोंछते हुए फिर चिल्लाया

अरे कोई तो युवा उमर को आवाज़ दो

क्या उमर नहीं सुन रहे तो

फारूक, आज़ाद, महबूबा, गिलानी, मीरवायेज, कर्ण सिंह, खजूरिया, रिगजिन, दुबे...

अनगिनित नाम है

किसी को तो बुलाओ

नहीं आते तो उन तक सन्देश पहुँचाओ

कहो कि मेहरबानी कर

मेरे आई डी कार्ड का प्रबन्ध करें

मुझ तक पहुंचाएं मेरी पहचान

मैं बेबस हूँ

मैं घायल हूँ

दिल्ली है कि मेरा विश्वास नहीं करती

इस्लामाबाद सबूत मांगता है

यू0  एन00 मुझे पहचानने की बजाय

अपना सिर खुजलाता है

...

तभी चौक का सन्नाटा टूटा

हाथ में पत्थर उठाए युवाओं की टोली

शोर करती शांति को चीरते चिल्लाई

कौन है जो पहचान की बात कर रहा है

मारो बचने न पाए

युवाओं के पीछे पीछे खाकी वर्दी वाले भी लपके

तभी किलाश्न्कोव की गोली चली

घायल के सीने को चीरते हुए निकल गयी

घरों में दुबकी शहर की भीड़

बाहर निकल चौराहे पर जमा हुई

युवाओं के साथ बन्दूक उठाए सिपाही भी बोला

कोई पहचानता है इसको

अगर नहीं तो इसका आई डी कार्ड देखो

देखो कौन है यह

नहीं...इसके पास तो आईडी कार्ड है ही नहीं

पेंट छोड़ो कमीज़ की जेब देखो

नहीं है

पेंट की अंदर की जेब

अरे कुछ भी नहीं

तो यह बिना आई डी कार्ड के यहाँ क्या कर रहा था

इसको तो मरना ही था

बिना आई डी कार्ड के धरती के

इस टुकड़े पर कोई किसी को नहीं पहचानता

न दिल्ली

न इस्लामाबाद

न यू0  एन0  ओ0

न मैं

न तुम .




दोस्त 

(सुधीर महाजन)

दोस्त तो

बटुए में रखे पुराने कागजों की तरह है

जिन्हें न जाने कितने सालों से सम्भाले हूँ

कुछ मुड़तुड़ गए हैं

अपना सफेदपन भी खो चुके हैं

कुछ की तह इतनी सावधानी से खोलनी पड़ती है

कि लेशमात्र कठोरता भी इन्हें फाड़ देगी -

 

मैं जानता हूँ

इन कागजों पर लिखी गई

धूमिल हो चुकी पंक्तियों के मायने

जो गुदगुदा भी जाती हैं

रुला भी जाती हैं

कितने ही पुराने चेहरों से मिलवा जाती हैं

सच कहूँ तो

मुझे मेरे पास बैठा जाती हैं

जीवन की इस गोधुलि वेला में

यह अहसास कितना सुखद है

कि मैं भी

एक मुड़ा तुड़ा कागज़ पुराना बनकर

किसी न किसी बटुए में सम्भाला जा रहा हूँ ..

दोस्त तो बटुए में

रखे कागज की तरह हैं .

 


संदूक का ताला

(अमिता मेहता)

 

सासू माँ की संदूक पर जड़ा ताला

अक्सर मुझे मुँह चिढ़ाता था

पर एक उम्मीद थी कि

एक दिन यह खुल जाएगा

और सभी परेशानियों का हल निकलेगा

...

सासू माँ के परलोक सिधार जाने पर

मैंने उम्मीद भरी जिज्ञासा से उस ताले को खोला

मुझे उसमें दो जोड़ी कपड़ों के सिवा

कुछ नहीं मिला

कोने में एक मुड़ा तुड़ा कागज़ रखा था

जिस पर लिखा था -

' बिटिया , निराशा में भी आशा का भ्रम बनाए रखना '

 

मैंने अपने दो जोड़ी कपड़े

और वो कागज़ का टुकड़ा संदूक में रखकर

उस पर जड़ दिया ताला

और ताली पल्लू से बांध ली ...



करना प्रेम

(योगिता यादव)

 

कंटीली बाड़ के इस तरफ

बासमती के खेतों से आती

अधपकी फसलों की खुशबू के बीच

मेरी आंखों में आंखें डाल

जब तुम कह रहे थे -

            करना प्रेम

            करती रहना प्रेम

            प्रेम बचा तो बची रहेगी दुनिया ----

 

ठीक उसी वक्त

मेरे कानों ने सुनी थी

भयंकर धमाके की आवाज

तुम्हारे हाथों से अपना हाथ

जब तक छुड़ाती

खेतों में उतर चुकी थी बारुदी गंध

छलनी हुई जाती थी मेरे आंगन की मुंडेर

बस अब गिरने ही वाला था

मेरे सपनों का आसमान

 

मैंने संभाला आंचल, जगाए बच्चे

उठाया संदूक

और जरूरी बर्तन

तुम भी घबराए से

आनन फानन में

बस समेट ही रहे थे

सपनों की फैली चादर

 

ट्रैक्टरों में, पगडंडियों पर

दौड़ रहे थे गांव

दौड़ रहे थे बस्ते

भाग रहे थे खिलौने

दम साधे ओढ़नियां

कुल देवताओं से

कर रहीं थी प्रार्थना

 

दो पल आंखें मूंद

गांव घर की रक्षा को

मैंने भी बुलाए बड़े पीर

राजा मंडलीक

बुआ दाती

 

और देखो न

इस भगदड़ के बीच

मैं भूल ही गई उठाना

आले में रखी सिंदूर की डिबिया

 

फिर किसी रोज

गर बिछी सपनों की चादर

तो बताना

कहाँ  करूं प्रेम

कब करूं प्रेम

क्योंकि कहते हों न तुम

प्रेम बचा तो बची रहेगी दुनिया ।

 


औरत को सबसे अधिक खतरा है 

(शालू देवी प्रजापति)


मुझे याद है

तुमने हमेशा कहा

दुनिया में औरत को सबसे अधिक खतरा है

मैं कहती थी

इस बार फेल होने का खतरा है

मैं समझती न थी

मैं बच्ची थी

मैं खेल आती थी

गलियों से

बाग बगीचों से

मूंगफली ने मेरे छिलके कभी नहीं उतारे

अमरुद ने कभी मुझे कड़वा नहीं किया

....

बड़ी हो गई हूँ

फुसफुसाहट और ठहाकों के बीच

गलियाँ बाग़ बगीचे मूंगफली और

अमरुद के मालिक

मेरी चुगली करते हैं

मैं सिर्फ साम्बा से जम्मू का सफ़र करती हूँ

और घर आकर

अपनी डायरी में लिखती हूँ

मेरी एम० ए० को नहीं

दुनिया में औरत को सबसे अधिक खतरा है ...

 


स्त्री विलाप कर रही है  

(मनोज शर्मा)


एक स्त्री विलाप कर रही है

देखा जाए तो

साधारण सी कितनी आम पंक्ति है यह

जैसे कह दिया जाए

कोई सो रहा है

सुबह की सैर को निकल रहा है कोई

जैसे कोई खाना खा रहा है

और स्त्री विलाप कर रही है

पता नहीं क्यों लग रहा है मुझे

क्या ऐसा नहीं हो सकता ...

लिखूं यदि यूँ कि

स्त्री विलाप कर रही है

तो ऐसा लिखते ही सूख जाए पेन की स्याही

जिस कैमरे ने खींची हो ऐसी तस्वीर

उसके लैंस में पड़ जाए तरेड़

या फिर झड़ जाए ब्रुश चित्रकार का

गायक के कंठ में फँस जाए सुर

कमाल देखें

कि ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है

दुनिया के प्रारम्भ से

विलाप कर रही है स्त्री

जैसे घूम रही है पृथ्वी

वह नहा रही है और रो रही है

हिचकियाँ ले रही है और सेंक रही है रोटियां

एक हाथ से बाँधा है नाड़ा उसने अभी

और दूसरे से , होठों तक फैले आँसुओं को पोंछा है

पूरे जोर से निचला होंठ दबाकर

ईश्वर की निर्धारित प्रार्थना तक पूरी की है

बाजारों के उठ जाने के बाद

ज्यूं उजड़े नज़र आते हैं मैदान

ज्यूं भरे थानों के बावजूद

उतरता नहीं गाय का दूध

इच्छाएं अलमस्ती में खुद को ही निगलती जाती हैं ज्यूं

ज्यूं रात का आखिरी गजर बजते ही भयावह हो उठता है कब्रिस्तान

इस शाश्वत रुदन की

कुछ ऐसी ही सच्चाई है

दुनिया के तमाम शोर शराबे में

एक स्त्री का विलाप

किस उम्मीद से है ...

स्त्री विलाप करे

और वृक्ष फलदार न रहें

सूख जाएं पक्षियों की चोंचें

हमेशा के लिए मल्लाह उलट दें अपनी किश्तियां

चीत्कार उठे तथा आखिरी ध्रुवों तक जाए

और इसके बाद फिर

परछाइयां ऐंठना भूल जाएं

सोचें ज़रा

ऐसा घट सकता है क्या ...

 (वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा जी को समर्पित। ) 

 

अँधेरे की पाज़ेब  

(निदा नवाज़)


अँधेरे की पाज़ेब पहने

आती है काली गहरी रात

दादी माँ की कहानियों से झाँकती

नुकीले दांतों वाली चुड़ैल सी

वह मारती रहती है चाबुक

मेरी नींद की पीठ पर

काँप जाते हैं मेरे सपने

वह आती है जादूगरनी सी

बाल बिखेरती

अपनी आँखों के पिटारों में

अजगर और सांप लिए

मेरी पुतलियों के बरामदे में

करती है मौत का नृत्य

अतीत के पन्नों पर

लिखती है कालिख

वर्तमान की नसों में

भर देती है डर

भविष्य की दृष्टि को

कर देती है अंधा

मेरे सारे दिव्य-मन्त्र

हो जाते हैं बाँझ

वह घोंप देती है खंजर

मेरे परिचय के सीने में

रो पड़ती है पहाड़ी श्रृंखला

सहम जाता है चिनार

मेरे भीतर जम जाती है

ढेर सारी बर्फ़ एक साथ।

 


हवाई यात्रा में कविताएं  

(अग्निशेखर)


कुछ प्रिय कवियों को

पढ़ा है हवाई यात्रा में मैंने

जैसे अमरीका जाते

नाज़िम हिकमत

मुझे नहीं मालूम

अमरीका के दोस्त मेरे

इसे संयोग मानेंगे

या पूर्वाग्रह मेरा

 

मुझे याद है

लगा था मुझको खिड़की से देखते

बाहर पँख पर बैठे थे

नाज़िम हिकमत किसी देवदूत से

 

मैंने पढ़ा है हवाई यात्रा में

जर्मनी के ऊपर से उड़ते

रूसी कवि आंद्रे इ वोज़्नेसेंस्की

और येवतुशेंको को

दोनों बैठे थे जैसे अगल बगल मेरे

शालीन, गंभीर और चुप

पता नहीं जर्मनी के दोस्त मेरे

कैसे लेंगे इस बात को

 

मैंने पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान के ऊपर  से

उड़ते पढ़ी है वारिस शाह की मोटी किताब

और अमृता प्रीतम की गुहार उससे

 

मैंने कितना चाहा कि मेरी सीट के सामने लगे छोटे से

टी.वी. स्क्रीन पर

दिखाया जाए

बुल्ले शाह के गाँव से मेरे लिए

मुट्ठी भर मिट्टी लाते हुए

मेरे एक कहानीकार दोस्त को

 

मैंने कितने ही कवियों को पढ़ा है

हवाई जहाज़ में

हेग, एम्स्टर्डेम, पेरिस, लंदन जैसे देशों में

अपनी बात जलावतनी की  उठाने जाते

जैसे सोचते हुए इस्राइल को

मैंने पढ़ा है सीरिया के नज़ीर कब्बानी को

और फिलिस्तीन के महमूद दरवेश को

याद करते पढ़ी हैं

यहूदा अमीखाई की कविताएँ

निर्वासन उसके माता पिता का

और मॅास्को की यात्रा पर जाते

एक मित्र को दी थी मैने

ब्रॅाद्स्की की रचनाएँ

 

और इस बार अपने एक कवि मित्र की

ज़मीनी कविताएँ मैंने पढ़ डालीं

हवाई जहाज़ में

अपनी मिट्टी, गाँव, वन-प्राँतर

और छोटे छोटे लोगों की संवेदनाओं के बारे में

 

मैं हर बार जहाज़ की खिड़की से देखते बाहर

सोचता हूँ

काश संसार में एक साथ

सभी देशों में

हज़ारों लाखों जहाज़ों से

फूलों की तरह बरसाई जाएँ

ललद्यद और कबीर की कविताएँ

और हम

प्रार्थना में हाथ उठाए

देखें आकाश की तरफ़

पृथ्वी-प्रेम में उठते देखें खुद को

तमाम क्षुद्रताओं से

ऊपर ऊपर।


 

हाथ सेंकते जाओ   

(नरेश कुमार खजूरिया)

 

 चटख-चटख कर

जलती लकड़ियों की आवाज़

उठती है मेरे भीतर से

तुम कविता सुनाने की बात कर रहे थे

सुन लो !

वो कविता ही क्या

जिसमें आग न हो

वो कविता ही क्या

जिसमें आंच न हो

इस भरी सदी में

हाथ सेंकते जाओ

ठण्डे दिलों ,

ठण्डे हाथों से लड़ाइयाँ नहीं लड़ी जाती।



शहर जब सो जाता है    

(कुँवर शक्ति सिंह)

 

 शहर जब सो जाता है

मैं  सुबह तक पढ़ता हूँ तेरे ख़त

किस्सों के पुतले बनाकर रखता हूँ सामने

और दिल से कहता हूँ

तुम्हारा न कहा हर शब्द

ज़िन्दगी इसे ही कहते हैं तो

इक टेढ़ी मेढ़ी

लम्बी छोटी लकीर

अगर कोई बच्चा ही खींच दे

तो क्या करें खुदाओं का

शहर जब सो जाता है

मैं तब सच से पीठ लगाए

देखता हूँ झूठ

शहर जब जाग जाता है

मैं एक सड़क होता हूँ।

 

बूढ़ा आदमी  

(शेख मोहम्म्द कल्याण)

 

पहाड़ पर खड़ा

पहाड़ ओढ़ता

पहाड़ जी रहा है

बूढ़ा आदमी

बेशक दिखता है खड़ा पहाड़ पर

किन्तु सदियों से ढो रहा है

पहाड़

 

दरअसल थूकना चाहता है वह

समय के पहिये पर

सदी के किसी इतिहासकार ने

उसे दर्ज़ नहीं किया

अब उसे भी

किसी के हंसने या रोने से

कोई फर्क नहीं पड़ता

और जब वह हँसता है

उसके सिर से

जूएँ गिरती हैं

उसकी पसलियों में धँसी हुई हैं सदियाँ

जी में आता है जब भी

थूक देता है बलगम

 


मैंने उसे छुआ    

(डॉ. शाश्विता)

  

उसके अधखुले होठों पर

बेजुबान बातें थीं

विरासत में थे मैले दिन

बदनाम रातें

कुछ ज़िद थी

थोड़े हौसले भी

इन्सान हो पाने की कोशिश

जीने का सामान भी था ...

 

मैंने वो सब सुना

जो उसने कभी न कहा

मैंने वो सब छुआ

जो भी उसने छुपाया ...

 


घर के बाहर

(मुदस्सिर अहमद भट्ट)

  

वे आज सवेरे

घर के बाहर बैठकर आए

...

आए

एक गीत गाते हुए

हाथ में बन्दूक लेकर -

मुन्ना की आँखों पर  पट्टी बंध गई है

उसे अब कुछ नहीं दिखता ...

 


हिन्दी का नमक   

कमल जीत चौधरी

 

 खेत खेत

शहर शहर

तुम्हारे बेआवाज़ जहाज

आसमान से फेंक रहे हैं

शक्कर की बोरियां

 

इस देश के जिस्म पर

फैल रही हैं चींटियाँ

छलांग लगाने के लिए नदी भी नहीं बची -

 

मीठास के व्यापारी

यह दुनिया मीठी हो सकती है

पर मेरी जीभ तुम्हारा उपनिवेश नहीं हो सकती

 

यह हिन्दी का नमक चाटती है।



प्रस्तुति व फोटोग्राफ: कुमार कृष्ण  शर्मा

  

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