Tuesday, April 30, 2013

मजदूर दिवस


  
मजदूर दिवस पर सभी को बधाई। इस खास और ऐतिहासिक मौके पर रियासत के दो महान कवियों वेदपाल दीप (तीन जून 1929-चार फरवरी 1995) और महजूर (11 अगस्त 1887-19 अप्रैल 1952) की दो-दो रचनाएं पाठकों के सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। डोगरी गजल के बादशाह, शायर, पत्रकार और मार्क्ससिस्ट वेदपाल दीप और कश्मीरी कवि महजूर किसी परिचय के मोहताज नहीं है। वेदपाल दीप की कविताएं साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित और मोहन सिंह द्वारा संपादित किताब वेदपाल 'दीप' रचना संसार (सन 2003) से जबकि महजूर की कश्मीरी कविताएं जम्मू और कश्मीर कला, संस्कृति और भाषा अकादमी श्रीनगर की ओर से प्रकाशित किताब महजूर की श्रेष्‍ठ कविताएं (सन 1989, अनुवाद डा. शिबन कृष्‍ण रैना ) से साभार ली गई हैं।



वेदपाल दीप




नमीं अजादिये!

नमीं अजादिये साढ़े' च आ
देसागी समझी लै अपना गै घर।
बनियै बरखा, ठंडियां कनियां
सुक्के गरीबी दे खेतरें बर।
प्हाड़े मदानें बिछे दा इ सबजा
बनियै गवां बकरियां चर।
के होया चे चिरें देसागी परतियें
असेईं पच्छान, निं बिंद भी डर।
जित्‍थे जरूरत ऐ लोकें गी तेरी
नमीं अजादिये उत्‍थैं गे चल।
कड़कदी धुप्प बी खेतरें जित्‍थैं
नंगे पिण्डै मानु जोता दा हल।
गासा' नैं छोन्दी मशीनें'च जित्‍थैं
माहनु बी बने दा लोहे दी कल।
उच्चियें माड़िये मेह़्लैं गी छोड़ी
पुज्जां पर बिच्छे दे खेतरें ढल।
सुन्ने' ने जड़े दे देवतेईं छोड़ी
मिट्टी ने सनें दे लोकें' ने रल।
आरती करनेई दीये गी बाली
बोली गरीबनी, 'करमेंदा फल'।
बडि्डयें मैहफलें सज्जियै बौनियें
सुन हां आनियै इन्दी भी गल्ल।
मैहलें च रातीं बी सूरज गै चमकै
तू कच्चे कोठें दे दिये' व बल।







गजल

उट्टी दी रात नडाल क् जारो! समां बदलने आला ऐ।
बडले नै मारी छाल क् जारो! समां बदलने आला ऐ।
रुख बदलन लगे हवाएं दे रस्ते बदले दरयाएं दे
बदलै दा जमाना चाल क् जारो! समां बदलने आला ऐ।
ओ ज्वाला मुखियें मुंह खोले, कम्बी धरती परबत डोले
इक औन लगा भंचाल क् जारो! समां बदलने आला ऐ।
त्रुट्टे-भज्जे दे पैमाने, सुनसान होए दे मैखाने
पीने आले बेहाल क् जारो! समां बदलने आला ऐ।
तड्फै दा शलैपा व्याकल जन, हुन होने बाज निं रौग मिलन
हिरखै दा कलेजा घाल क् जारो! समां बदलने आला ऐ।
नां उच्चा कुल, ना बड़याई, पैरें सौंगल नां गल फाई
(आ) जाद होए कंगाल क् जारो! समां बदलने आला ऐ।
ओ गगन दमामा बज्जै दा, ताण्डव छिड़ेआ रण सज्जे दा
देऐ दी सृष्टि ताल क् जारो! समां बदलने आला ऐ।
नईं अत्‍थरूं 'दीप' दे नैने च, चरचे पेई गे तरफैनें च
ए कैसा चरज कमाल क् जारो! समां बदलने आला ऐ।









महजूर




रे गुलेलाला!

लाला, लाला रे गुलेलाला *!
हाल अपने दिल का
कर तू इजहार!
सीने पर दाग लेकर
आया तू जहां से
रे बाल गोपाल!
क्या वहां भी सब-के-सब
हैं दागदार!
विकलता से मुक्त
शांति से युक्त था, वह संसार
भौतिकता से परे
वहां तो था सुख-चैन, और
मन का पूरा करार!
फिर
तेरे कोमल हृदय को
कौन-सा यह हादसा
दे गया वेदना आपार?
वहां भी, यहां की तरह ही
है अव्यवस्‍था और अंधकार?
वहां भी है
'यंबरज़ल' 'मसवल'
गुल और गुलजार?
हैं वहां भी बुलबुल को
फूलों की लगन?
या
वहां भी
खत्म हो रही है बहार?
वहां भी इंसान
इंसान को मारने के लिए
बना रहा है हथियार?
और
औरतों, मासूम बच्चों पर
कर रहा बमबार?
वहां भी हैं
कब्रिस्तान और मरघट
'मलखाह', 'नूरबाग','दानामज़ार' **
और इन सबके ठेकेदार?
वहां भी है
व्यवस्‍था कंट्रोल की गोलमोल
और वस्तुओं का चोर-बाजार?
वहां भी है
पक्षपात समान बांटने में
और इस लोक जैसे धूर्त राशनदार?
वहां भी
अकिंचन की
कोई इज्जत नहीं
और सिद्धांतहीन-पाखंडी
कहलाते हैं इज्जतदार?
वहां भी हैं
काश्तकार, जमींदार
और बड़े-बडे चकदार?
वहां भी निठ्ठलों में
बंटती हैं नियामतें
और मेहनतकशों को
फोके और अत्याचार?
वहां भी निर्धन हैं कहलाते
मुजरिम-गुनहगार और
साफ छूट जाते हैं मालदार?
वहां भी
दुर्बल-पीड़ित कहलाते हैं झूठे
सत्यवाद कहलाते
पूंजपति मक्कार?
वहां भी कैद है किया जाता
सच्चों को
और राज करते
वाचाल और तेज-तर्रार?
(होते जो मोटर कार में सवार)
वहां भी
न्याय के नाम पर
लुटते हैं मुलज़िम
और उनके नातेदार?
वहां भी
पिटते हैं बेगुनाह
साथ उसके साथी-रिश्तेदार?
वहां भी करता है जालिम
दमन कमजोरों का, और
उनके पक्षघरों के साथ
करता है दुराचार?
वहां भी विद्वान-पंडित
शोषक को हाथ जोड़
कहते हैं अपना दिलदार?
वहां भी ज्ञानीजन
कहते हैं दिन को रात
ओर झाड़ियों को देवदार?
वहां भी 'महजूर' दूर बैठ कर
फैंकते हैं मुर्गियों को
मोती दाने ये निर्लज्ज चाटुकार?


* लाल रंग का खास फूल जिसकी पंखुडियों के बीच दाग होता है
** श्रीनगर में स्थित विभिन्न कब्रिस्तान





दर्द का संगीत

मधुबाले, किया बहुत अधीर
तुने मुझे
अब मदिरा पिला
कुछ ऐसी
भर जाए
इस व्याकुल मन में
दर्द का संगीत और
बेचैनी।
सुबह की बयार
बगीचे में जो बही
बुलबुल के लिए लाई
खुशियां बेहिसाब, और
मालिक के लिए
चटकते गुलाब।
मगर
रीते प्याले की तरह
पानी में घूमता रहा भंवर
रात-दिन
दरिया ने दिया नहीं उसे
एक भी कतरा पानी।
(दोस्त मेरे)
मांगने और मनाने का
दौर हो चला है समाप्त
दौर नया आया है अब-
होगा जिसकी भुजाओं में दम
विजय-किरीट बंधेगा उसी के।
उमंग-उत्साह
जोश और बेचैनी
होंगे पैदा जब दिलों में हमारे
इंकलाब होगा तब
इंकबाल के हैं ये
लक्षण सारे।
(अन्याय का आलम देखो)
पहले लुटे दादा मेरे
जब मैं भी हूं लुट रहा
माल ले गए
जान भी ले रहे हैं
देकर अहंकार पे धार
तेज हुए जुल्म के औज़ार
(दोस्त मेरे फिक्र न कर)
वक्‍त पड़ने पर
जुल्म की कैंची से ही कटेंगी
गुलाम की ये जंजीरें।
लाखों लोग तब
देख कर बाग को
होंगे पुलिकत
खिलेंगे फूल
चहकेंगी बुलबुलें
उजड़ेंगे घर भी कई के।
लिप्त रहे स्वार्थ में कुछ लोग
मुल्क की आजादी के खिलाफ-
वक्‍त जब प्रभावित करेगा
कैसे समझाएंगे
आने वाली पीढ़ियों को वे
पड़ेगा मुश्किल
देना जवाब।
दूर हो जा एक तरफ
मेरे कौम के बाग का
दुश्मन है तूं।
सींचना है मुझे पेड़ों को
पानी बहने लगा है अब
हमारी नदियों में।
हवा गुलों को हंसाती है
'महजूर' दिलों को है जगाता
दोनों है इस बात से बेखबर
पाप क्या और पुण्य क्या?

3 comments:

  1. Mazdooron ko mera salaam.kumar jee aapne inhe yaad rakha bahut accha laga. Kavitain bhee prasaangik hain . Dhanyavaad.

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  2. lal salaam comrades,'DEEP saab ki ghazalon mein jahan samay aur samaj ki partiti hoti hai wahin mahzoor saab ki apni rangat hai.bohut umda

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