Wednesday, April 17, 2013

डॉ शाश्विता



जन्म -   जम्मू में
माँ -   सुश्री सुनीता [ सेवानिवृत्त प्रवक्ता ]
पिता -  विपिन चंद कपूर [ जे एंड के, के भूतपूर्व उपमुख्य मंत्री के सेवानिवृत्त निजी सचिव ]
शिक्षा -   महाराष्ट्र से बीएमएस
लेखन -   नौवीं कक्षा में कुछ लघु  कहानियाँ लिखी फिर एक विराम के बाद  कॉलेज के दिनों        में कविताएँ लिखनी शुरू की
प्रकाशित -  प्रेरणा , अभिव्यक्ति , दैनिक कश्मीर टाइम्स आदि में
प्रेरक -  महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान
रूचि -  प्रकृति विहार , योग , ध्यान
अन्य -  आकाशवाणी से कविता पाठ और गोष्ठियों का प्रसारण , अनेक मंचों से कविता पाठ
आजीविका - आयुर्वेदिक डॉक्टर

सम्पर्क -

द्वारा - वी सी कपूर
हाउस नंबर - ६७ , सेक्टर - ४
ऊपर रूपनगर , जम्मू , जे एंड के
दूरभाष - ०९४१९७९५२

   धूमिल के शब्दों में कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है। सच्ची  कविता निरन्तर आदमीयत की तलाश करती है। यह तलाश दो स्तर पर होती है। आंतरिक और बाहरी। सतरंगी आकार पाने वाली और किसी की मैली काया में बेबसी की धूप से झुलसने का मनोभाव रखने वाली  रचनाकार डॉ शाश्विता कविता को आत्मसाक्षत्कार मानती हैं। इसके लिए वे निरन्तर संघर्षरत रहती हैं। कविता पर लम्बे संवाद करना उनको अच्छा लगता है। इनकी कविताएँ दार्शनिक तथा रहस्यवादी  भावभूमि से जुड़ी हैं। आलोकिक सत्ता से संवाद करती इनकी अभिव्यक्ति लोक को भूलती नहीं है। इनकी कविताओं में आने वाला ' वह '  , ' माँ ' , और ' उसे '  दरअसल लोक भी है और आलोक भी। सहवेदना जैसी कविता वही लिख सकता है जो मानव मन की पीड़ा , अभाव ,  दरिद्रता और संवेदना को समझता है।  उसके उत्थान हेतु कुछ करना चाहता है। वह हाथ और हाथ के रिश्ते को उकेरती   हैं। अपना हाथ उस हाथ में  देना चाहती हैं जो गुलमोहर हो। वह मुक्त होकर माफ़ नहीं माफ़ करके मुक्त होती हैं। यही से वह इधर की हिन्दी कविताओं और मुहावरे से  अलग  दिखती    हैं। एक आंतरिक लय और संगीत इनके भाव पक्ष को मोहक बनाता है। भावानुरूप इनकी भाषा और कविता का ढांचा बदलता है। घोषणा शीर्षक से  लिखी  इनकी कविता इसका सशक्त उदाहरण है। इनकी कविताएँ अँधेरे के लिए जानी जांयेगी। वे अनकहे की तलाश करती अँधेरे के सघन , मर्मस्पर्शी तथा बोलते   बिम्ब बुनती हैं। यहाँ  दूब से ओस के सपने  के छिन जाने की छटपटाहट भी है और सूखे के कालचक्र से नमी बचाने का संकल्प भी। इनका यह संकल्प बना रहे इसी कामना के साथ शाश्विता जी को ढेरों शुभकामनाएँ। यहाँ  प्रस्तुत हैं उनकी पाँच कविताएँ।

  अँधेरा 
    तमाम चेहरे
    एक हो जाते हैं
    लम्बा गहरा अँधेरा
    जब फैलता है
    सर से पाँव तक
  
    अँधेरे में हम देखते हैं
    उजाले के सपने
    तलाशते हैं अपने हिस्से की ज़मीन
    संभलकर पाँव रखने के लिए
    अँधेरे में डूब जाते हैं
    उजाले में  फैले सारे भ्रम
    अँधेरे में हम
    आँख खोलकर देखने का प्रयास करते हैं
    टटोलते हैं हाथ और हिम्मत
    थामते हैं हाथ
    नहीं पूछते उसकी जाति
    नहीं देखते रंग और धर्म
    हमारे स्पर्श में
    आती है सिहरन
    जो दिलाती है लहू की याद
    घोर सघन अँधेरा
    परत - परत गिरह खोलता है
  
    तमाम आवाज़ें खामोश हो जाती हैं
    जब अँधेरे का सन्नाटा बोलता है
    हम पीते हैं
    बूँद - बूँद तन्हाई
    सुनते हैं महीन कम्पन
    नाभि की
    धड़कन की
    और अचानक महसूस करते हैं
    जीवन का अहसास
    अँधेरे में
    बच्चा कहता है -
    माँ
    माँ जो हो जाती है
    तिलीभर रोशनी
    फैल जाती है
    गहरे काले अँधेरे में।




    मुक्ति


    बू से लथपथ

    उसकी साँसे

    जिस्म हो जाने को बेताब

    जब

    घुटन देना चाहती हैं मुझे

    रोज की तरह ...


    मुक्ति की छटपटाहट में

    मैंने चाहा

    नदी हो जाऊं

    बाढ़ में बदल जाऊं

    उठाऊं तूफान

    बह जाए दर्द सारा

    कारण सारा

    फिर

    एक दिन

    मैं माफ कर देती हूँ उसे

    और मुक्त हो जाती हूँ।






    खुलते किवाड़

    उसकी ग्रन्थियों में उतरकर

    वो फैलता गया

    विस्तार की हर सम्भावना तक

   
    पगडंडियों से

    कुछ इस तरह

    सरकने लगा अँधेरा

    कि सारे आवरण उतरने लगे

    खुलते किवाड़ों ने फैलाई बाँहें

    ठीक रोशनी के रूप में रूबरू


    वो सतरंगी सी आकार पाने लगी

    मील पत्थर छूटने लगे ...

    वो देने लगी प्रेमियों को

    आसमान हो जाने की दुआ।






    नमी

     अचानक

    वह चौंकी

    अभ्यस्त दिनचर्या में

    यह किसने चुराया

    हरी दूब से ओस का सपना


    किसने फैला दी माँ की नींदों में

    दूर तक तन्हाई

    और गर्भ के पात का कहर

    वह गौर से देखती है

    आँखों के नीचे फैली लकीर

    जो तमाम उम्र को

    झुर्रियों में बदल सकती है

    करीब से देखा उसने

    अपनी और बढ़ता अँधेरा ...

    उसे बचाने होंगे

    आशाओं के अग्निकण

    बारिश की खुशबू हवाओं में फैलानी होगी

    उसे ही बचानी है नमी

    सूखे के कालचक्र से

    और जिंदा रखनी है

    माँ की रातों में

    लौरी की सम्भावना

    उसे रीढ़ के हर पंडाव की करवट से

    गुजरना है

    छूना है मेरुदण्ड

    उसे ही रोपने हैं

    धरती की कोख में  इन्द्रधनुषी रंग

    कि गुलमोहर की तरह  ऊँचा और केसरी

    धड़कता रहे जीवन

    वह प्रकृति के सम्मुख है

    तमाम जीवट के साथ।






    सहवेदना
    

    मेरे घर की

    जूठन घिसती ...

    तेरे हाथों की लकीरों को

    देना चाहती हूँ कुछ और


    तेरी जवान उम्र की

    झुर्रियों को

    उतरन

    दया

    घृणा से कुछ अलग

    और देना चाहती हूँ

    नारियल फल

    काली दाल में कैद

    परिवार की बलाओं के साथ

    कुछ और भी

      
    मैं जानती हूँ

    तुम्हारी

    तीस दिन की जी तोड़ मेहनत

    हथेलियों पर

    छन से गिरते

    चन्द सिक्कों का संगीत नहीं


    मैं देना चाहती हूँ

    तुम्हारी

    मजबूर आँखों को

    एक तृप्त अहसास ...

    मैं जानती हूँ

    तेरी उमंगों के पंछी

    कहाँ कूकते हैं

    मन की बगियों में

    चाहते हैं

    खुला आकाश 

    कुछ बूंदें

    और आग

   

    देना चाहती हूँ तुम्हे

    गीली मिट्टी की खुशबू

    छोटी छोटी आशाओं में

    क्षितिज का इंतज़ार।

    तेरी मैली काया में

    बेबसी की धूप लिए  

    मैं ही झुलस रही हूँ

    ऐ अजनबी

    तुम

    मेरे दिल में धड़कती

    मेरे अक्स का रूप हो

    मैं देना चाहती हूँ तुम्हे कुछ और 
    

    कुछ और भी

    जो तुम चाहती हो

    जो मैं चाहती हूँ

    शायद

    ईनाम और प्रमाण

    तेरे मेरे इन्सान होने का।


    प्रस्तुति :-

    कमल जीत चौधरी
    काली बड़ी , साम्बा [ १८४१२१ ]
       जम्मू व कश्मीर , भारत
    दूरभाष - ०९४१९२७४४०३
    ई मेल - kamal.j.choudhary@gmail.com

3 comments:

  1. अंधेरा कविता बहुत कमाल है ! बाकी सारी कविताएं कमज़ोर हैं, किसी न किसी वजह से...

    ReplyDelete
  2. कमलजीत भाई आपका हार्दिक आभार की आपने जम्मू के कवियों को खुलते किवाड़ के सोजन्य से प्रस्तुत किया /कवितायेँ अपने आप में सोन्दर्य शास्त्र हैं इन कविताओं पे टिप्नियाँ वही लोग बेहतर दे सकते हैं जो कविताओं में निमित वात्सल्य को समझ सकते हैं /हर शब्द यथासंभव तार्किक और काव्यपूर्ण है /शैली कवि की निज़ी सम्प्रेषण बोध है /सभी कविताओं के लिए शाश्विता जी को बधाई /

    ReplyDelete
  3. शाश्विता जी को पहली बार पढ़ा। ऐसी कविताएं स्‍त्री ही लिख सकती हैं। उम्मीद है दोबारा भी जल्द पढ़ने को मिलेगा। कमल जी के साथ कुमार जी...आपका धन्यवाद

    ReplyDelete