Tuesday, April 9, 2013

राजकिशोर राजन


जन्म : २५ अगस्त , १९६७ को गाँव चाँदपरना , गोपालगंज बिहार में।
शिक्षा : हिन्दी में परास्नातक तथा पत्रकारिता में डिप्लोमा।
प्रकाशित : बस क्षणभर के लिए , नूरानी बाग , तथा ढील हेरती लड़की नामक काव्य संग्रह प्रकाशित।
अन्य : दर्जनों नामी साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएँ , आलेख , समीक्षाएँ प्रकाशित।
अभी-अभी : राज्यवर्धन तथा प्रभात पाण्डेय द्वारा अखिल भारत से चयनित ग्यारह कविओं के प्रतिनिधि काव्य संग्रह स्वर एकादश में संकलित।
सम्मान : आरसी प्रसाद सिंह साहित्य सम्मान , बिहार राष्ट्र भाषा पुरस्कार , जनकवि रामदेव भावुक स्मृति सम्मान , मैथलीशरण गुप्त पुरस्कार।
आजीविका : ट्यूशन से लेकर अखबार तक। इन दिनों राजभाषा विभाग , पूर्व - मध्य रेल , हाजीपुर में नौकरी।
सम्पर्क :
५९ , एल . आई . सी . कॉलोनी , पत्रकार नगर ,
कंकड़बाग , पटना - ८०००२० , बिहार
दूरभाष : ०९९०५३९५६१४
ई - मेल : rajan.rajkishor65@gmail.com
राजकिशोर राजन एक कवि होने से पहले बहुत अच्छे पाठक और श्रोता हैं। कविता लिखना , सुनना - सुनाना , पढ़ना - पढ़वाना इनके लिए मानवीय होने का अभ्यास है। यह अभ्यास दुरूह न होकर अति सरल है। जिसे वह घर - परिवार , दुनिया - समाज के बीच रहकर सफलतापूर्वक करते हैं। बिना विशेष हुए। साहित्यिक मठों , खेमेबाजी तथा आत्मप्रचार से दूर रहकर वे अधिक मौलिक और करीब लगते हैं। अपने जनपदीय संघर्षशील बिम्बों तथा भाषा के कारण वे हिंदी कविता में एक अलग स्थान और पहचान रखते हैं। इनकी कविता विचार की अपेक्षा आत्मीय भावों पर टिकी है। किसी झण्डे की छाया की अपेक्षा जनपद और लोक की धूप इन्हे अच्छी लगती है। इसी धूप में खड़े होकर वे लोकतंत्र की खामियों को उजागर करते हैं। हाकिमों के बने
रहने के कारण बताते हैं। अपने गाँव के बच्चे की नींद तक जाकर दिल्ली पर सवाल खड़े करते हैं। ऐसी कविताओं में इनके व्यंग्य तीखे और मार्मिक हैं। राजन का काव्यकर्म खेतों में मेढ़े बनाकर सिंचाई करने जैसा है। पानी का हाशियों तक पहुँचना स्वाभाविक है। इनकी कविताएँ पाठक को डराती नहीं हैं। गँवई चाल से पाठक
के साथ चल देती हैं। धीरे से पूछती हैं - कहाँ जा रहे हैं जी ? आओ इकट्ठे चलते हैं। फिर एक आत्ममीय संवाद शुरू हो जाता है। जो पाठक को लोक और जनपद की मचान पर खड़ा कर देता है। यही से वृद्ध रिक्शाचालक , पिता के आँसू , ढील हेरती लड़की , शहाब भाई , पिंगपिंग { दुनिया का सबसे नाटा आदमी } , याद भाई , भगत बाबा , इतवारी फुआ , धनमातो काकी , बनिहारिन के लिए सुन्दर दुनिया का सपना देखा जा सकता है। हार्दिक आभार सहित यहाँ प्रस्तुत हैं राजकिशोर राजन जी की कुछ रचनाएँ।
    
एक वृद्ध रिक्शाचालक के नाम
रिक्शा ही उनका घर , दालान
बगीचा और खेत - खलिहान
उसमें उन्होंने खिला रखा है
एक फूल
पाँव बराबर हरी - भरी दूब
बोरे में बस रखी है
एक थाली , एक गिलास
एक धोती
एक फटा - पुराना बदरंग कुर्ता
उनकी बूढ़ी हड्डियाँ
पुराने रिक्शे को खींचते
जब होने लगती हैं हलकान
तब वे फिर - फिर भरने लगते
सीने में साँस
और वैसे में किसी नायक जैसे लगते हैं वे
जो मृत्यु की आखिरी साँस लेने से पहले
अनथक लड़ता रहता शत्रु के खिलाफ
पेट और संसार के अंतर्संबंध की कथा
वे वेदव्यास की तरह कहते
पर उस कथा की व्यथा को समझने की फुर्सत
आज किसी के पास नहीं
सभी को कहीं न कहीं पहुँचने की जल्दी।
    
एक संतुलित आदमी के नाम
वे न तो कभी क्रोधित होंगे
न भरेंगे कभी अंकवारी में
न देंगे कभी सीधा - सपाट उत्तर
न स्वीकारेंगे मन प्राण से
वे जब भी मिलेंगे
चकित कर देंगे , रंग - ढंग से
आपको लगेगा
इस आदमी का साथ है
पिछले जन्मों से
उनका संतुलन
आपको अन्वेषक बना देगा
आपकी उम्र कट जायेगी
यह जानने में
की वे दोस्त हैं या दुश्मन।
सलामत
इस बार भी
जब गाँव में आग लगी
सिर्फ झोंपड़ियाँ जलीं
बकरी बेच रखा था
टूटी खपरैल बदलवाने को
बुढ़न काका की वह सारी रकम
ख़ाक भई
बरसों खरीदी गई
शोएब मियाँ की लुंगी - बनियान
राख हुई
गाँव के दक्षिण
धूल के साथ , उठता रहा धुआँ
निरखती रही कौओं की पाँत
सलामत रहे , ईंट के मकान
हरखते , झोंपड़ियों की दशा पर
चले थे हमसे आँख मिलाने
पिछड़े कहीं के !
झोंपड़ियों में कानाफूसी हुई थी
जलने से पूर्व
कि सदा - सलामत नहीं रहता
किसी का गुरुर।
    
पिता के आँसू
माँ की तरह जब - तब हरख
बरस जाने वाले आँसू नहीं होते पिता के
आँसू माँ का करुण जितना
पिता का सिरजता उतना ही दुःख
जैसे कि फट पड़ी हो आकाश की छाती
भूल गए हों पखेरू अचानक पंख फड़फड़ाना
थर्रा कर रुक गई हो सहसा
पृथ्वी अपने वृत्त पर
जब एक - एक कर रोग आने लगते
स्थायीवास के लिए जर्जर देह में मित्र बन
हो जाता भरोसा की जिन्दगी
गिन - गिनकर लेगी अब प्रतिशोध
और वसूल करेगी सूद समेत पावना
तब भी पिता के नहीं बहते आँसू
पिता तब भी रोते हैं , मन ही मन
जब जवान बेटे के सहारे
आखिरी दिनों में रखते हैं
बड़ी कठिनाई से धरती पर पै
पिता बस रोते हैं बेटी की विदाई के वक्त
दुःख के गहन दिनों में
या किसी मित्र को सदा के लिए खो देने पर
जब भी रोते हैं पिता
लगता है , घटने वाला है अघटन धरती पर।
    
होड़
उनमें होड़ थी
अपने हाकिम के बारे में
बारीक से बारीक बात जानने की
उनमें होड़ थी
हाकिम के बारे में पीठ पीछे
एक से बढ़कर एक अपशब्द कहने
और बगावती तेवर अख्तियार करने की
उनमें होड़ थी
हाकिम से करीब
और दूर रहने की
इस होड़ को हाकिम जानता था
और हमेशा अमनपसंद और तरक्कीपसंद बना रहा
दिन दूनी - रात चौगुनी
फलता - फूलता रहा।
प्रस्तुति :  
कमल जीत चौधरी
काली बड़ी , साम्बा { जे एंड के }
दूरभाष - ०९४१९२७४४०३
ई - मेल - kamal.j.choudhary@gmail.com

5 comments:

  1. सबसे पहले आपके अपने ब्लॉग को और ज्यादा समृद्ध और संपन्न बनाने के लिए राजकिशोर जी के साथ साथ मेरे मित्र कमल जीत....शुक्रिया। राजकिशोर जी, आपको पढ़ कर ऐसा लगा जैसे मैं आपको पहले से जानता हूं। आपकी कविता ने मेरे साथ आपका सीधा साक्षात्कार करवा दिया है। भौतिक या जिस्मानी तौर पर आपसे मिलना बाकी रह गया है। खैर...वह भी जरूर होगा। उम्मीद करता हूं कि भविष्य में भी आपका सहयोग ऐसे ही मिलता रहेगा। बाकी कमल जीत, तुम को क्या कहूं। अपने आप से मैं कह भी क्या सकता हूं। अपना आप अपने बारे में सबकुछ जानता है।
    ...धन्यवाद

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  2. पता नहीं क्यूँ मुझे लगने लगा है आजकल कि कविता ,कहानी,गीत या और कोई विदा साहित्य की अगर है तो उसे सार्वभोमिक होना चाहिए /लोक का हस्तक्षेप इतना अधिक न हो की रचना केवल एक क्षेत्रविशेष की लगे /वही दरिद्रता ,दयनीयता और हीनता जैसे विषयओं का दोहराव होने से रचना एक जगह ठहर जाएगी /उसमें कुछ भी नया नहीं होगा /शब्द तो अधिकतम वही रहेंगे जो प्रयोग में पहले ही लाये जा चुके हैं /साहित्यकार को दूर की सोचनी चाहिए /जिस तरह दार्शनिक सोचते हैं /क्यूंकि हर साहित्यकार एक दार्शनिक होता है /कबीर,नानक,बुल्ला, फरीद या फ़िर खुसरो,ग़ालिब,दोस्तोवस्की को ही ले लें/इनको आज भी सुना पढा जाता है क्यूंकि इन्होने कालजयी तथा धीज रचनाओं का निर्माण किया /खैर इतना ही कहना चाहता हूँ की भाई ये कवितायेँ सार्थक होनी चाहिए और थोड़ी /बाकी हर किसी की अपनी शैली है ,अपना वास्तुशिल्प है /

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  3. बहुत सुंदर...पिता वाली कविता के अलावा होड़ और सलामत सबसे ज्यादा पसंद आई।
    धन्यवाद

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  4. पहली बार आपको पढ़ा। कविताएं जितनी अच्छी उतनी ही सरल। शुक्रिया

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